सामग्री पर जाएँ

हिंदी साहित्य का सरल इतिहास/भक्तिकाल/नाभादास( 16 वीं शती)

विकिपुस्तक से

नाभादास( 16 वीं शती)


रामानंद के शिष्यों में से एक अनंतानंद थे। उनके शिष्य कृष्णदास पयहारी थे। ये सन् 1575 के आसपास वर्तमान थे। उनकी चार रचनाओं का पता चला है। उन्हीं कृष्णदास पयहारी के शिष्य प्रसिद्ध भक्त नाभादास थे। नाभादास की भक्तमाल का हिंदी साहित्य में अभूतपूर्व ऐतिहासिक महत्त्व है। इसकी रचना नाभादास ने 1585 के आसपास की। इसकी टीका प्रियादास ने 1712 में लिखी। इसमें 200 भक्तों के चरित 316 छप्पयों में वर्णित हैं। इसका उद्देश्य तो जनता । में भक्ति का प्रचार था, किंतु आधुनिक इतिहासकारों के लिए यह हिंदी साहित के इतिहास का महत्त्वपूर्ण आधार-ग्रंथ सिद्ध हुआ। अवश्य ही इसमें भक्तों के चरित्र का वर्णन चमत्कारपूर्ण है, किंतु उसे मध्यकालीन वर्णन शैली के रूप सें ग्रहण करना उचित है। इन चमत्कारिक वर्णनों से तत्कालीन जनता की मानसिकता का पता चलता है। मध्यकाल में तथ्यपरकता पर कम ध्यान रहता था। वहाँ भाव प्रधान था, तथ्य गौण। फिर भी इस ग्रंथ से रामानंद, कबीर, तुलसी, सूर, मीरा आदि के विषय में अनेक तथ्यों का भी पता चलता है। सबसे बडी बात यह है कि इससे यह पता तो अचूक तौर पर लग ही जाता है कि वर्णित भक्तों एवं भक्त-कवियों की छवि जन सामान्य में कैसी थी। और, जिस समाज में भक्तों, कवियों, महापुरुषों के जीवन-वृत्त के विषय में इतना कम ज्ञात हो, उसमें इतना पता लग जाना भी बहुत काम की बात है।


भक्तमाल के रचयिता आलोचक नहीं थे। फिर भी उन्होंने विभिन्न भक्त कवियों के विषय में जो कुछ लिखा है, उससे उनकी सारग्रहिणी प्रतिभा का संकेत मिल जाता है। वे प्रायः विभिन्न भक्तों एवं कवियों की विशेषता ही बताकर उनके व्यक्तित्व का वास्तविक परिचय देते हैं। किसी भी मध्यकालान चरित-लेखन की तुलना में इस दृष्टि से नाभादास इस विषय में आज हमार लिए अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। कबीर के विषय में वे कहते हैं- कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षट्दरशनी। कबीर ने षट्दर्शनों और वर्णाश्रम का सम्मान नहीं किया मीरा के बारे में लिखा- निरअंकुश अति निडर रसिक जस रसना गायो। इन्होंने । रामकथा से संबंधित काव्य लिखा। इनके लिखे दो अष्टयाम मिलते हैं।

नाभादास को कुछ लोग डोम जाति का मानते हैं, कुछ क्षत्रिय जाति का। कहते हैं, इनकी तुलसीदास से भेंट हुई थी।


राम-भक्ति शाखा के कुछ अन्य उल्लेखनीय कवि प्राणचंद चौहान (17 वीं शती) एवं हृदय राम (17वीं शती) हैं। प्राणचंद चौहान ने सन् 1610 में रामायण महानाटक लिखा. जो संवाद के रूप में है। हृदय राम में ने 1613 भाषा हनुमन्नाटक लिखा। रामचंद्रिका को ध्यान में रखें तो केशवदास रामभक्ति शाखा के कवि ठहरते हैं, यद्यपि केशवदास का साहित्य के इतिहास की दृष्टि से अधिक महत्त्व उनके आचार्यत्व में है। रामचंद्रिका के संवाद बहुत नाटकीय हैं और उसमें विविध छंदों का प्रयोग किया गया है। केशवदास ने रामचंद्रिका की रचना 1601 में की थी।


संगुण रामभक्ति शाखा का साहित्य सामाजिक मर्यादा और लोकमंगल का साहित्य है। रामकथा में ये गुण विद्यमान हैं। राम का चरित्र इतना मर्यादित है, इसीलिए उन्हें 'मर्यादापुरुषोत्तम' कहा जाता है। तुलसी ने अपने युग के संदर्भ को रचनात्मकता में ढालकर उसे लोकोन्मुख एवं लोकग्राही बना दिया है। 'विवेक" और 'लोकमंगल' तुलसी के प्रिय शब्द हैं। परिणामतः यह धारा भक्ति की वैधीभूमि पर चली। प्रबंधात्मकता भी इस धारा में मिलती है, यद्यपि यह गुण इसमें प्रधानत: रामचरितमानस के ही कारण पाया जाता है। इस धारा में नाटकीय संवाद से युक्त रचनाएँ भी हुई हैं।


कालांतर में कृष्णभक्ति की मधुरोपासना का प्रभाव रामभक्ति साहित्य पर भी पड़ा। इस धारा में भी सखी भाव से राम की उपासना प्रारंभ हुई और तत्सुखी शाखा की स्थापना हुई, जिसमें भक्त अपने को सीता की सखी के रूप में रखकर राम की भक्ति में प्रवृत्त होता है। जनकपुर के भक्तों ने सीता को प्रधानता देकर कुछ राम काव्य रचे। 1703 में श्री रामप्रिया शरण दास ने सीतायन नामक काव्य रचा। 'तत्सुखी शाखा' के समान 'स्वसुखी शाखा' भी प्रवर्तित हुई।