हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/भारतेन्दु हरिश्चंद्र एवं उनका मण्डल: साहित्यिक योगदान

विकिपुस्तक से
हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )
 ← राष्ट्रीय नवजागरण की परंपरा और 1857 की राज्य क्रांति भारतेन्दु हरिश्चंद्र एवं उनका मण्डल: साहित्यिक योगदान महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण → 

भारतेन्दु हरिश्चंद्र एवं उनका मण्डल: साहित्यिक योगदान[सम्पादन]

भारतेंदु को हिन्दी में नवजागरण का अग्रदूत माना जाता है। वह एक व्यक्ति से बढ़कर संस्था थे। उन्होंने अपने समानधर्मा लेखकों का मंडल तैयार किया‌ जिसे 'भारतेंदु मंडल' के नाम से जाना जाता है। ‌‌‌‌अपने समय के रचनाकारों के साथ मिलकर उन्होंने हिन्दी साहित्य में एक नवीन युग का सूत्रपात किया। यह नवीन युग काल, प्रवृत्ति, चेतना, विधा हर दृष्टि से नया था। यह नयी चेतना आधुनिकता से‌ सम्पृक्त थी।

आधुनिक चेतना के निर्माण और विकास में विभिन्न परिस्थितियों का योगदान है। इस युग के लेखक देश की दुर्दशा पर चिंतित होते हैं। इनके साहित्य में देशानुराग कूट-कूट कर भरा है। भारतेंदुयुगीन साहित्य में चेतना के दो रूप स्पष्ट तौर पर मिलते हैं- राष्ट्रीय और सामाजिक। राष्ट्रीय चेतना का स्वर अंग्रेजी राज और खास तौर पर उसके द्वारा किए जा रहे आर्थिक शोषण का विरोध करता है। वहीं सामाजिक चेतना का स्वर भारतीय समाज में फैली तमाम बुराइयों और रूढ़ियों का विरोध करता है। बाल- विवाह, पर्दा-प्रथा, नारी अशिक्षा, धार्मिक पाखंड जैसी सामाजिक कुरीतियों का खंडन भारतेंदुयुगीन साहित्य का प्रधान लक्ष्य है।

डॉ रामविलास शर्मा ने भारतेंदुयुगीन साहित्य को गदर से प्रभावित मानते हुए उसके जनवादी स्वरूप को स्पष्ट किया है। उनके शब्दों में - भारतेंदु युग का साहित्य भारतीय समाज के पुराने ढांचे से संतुष्ट ना रहकर उसमें सुधार भी चाहता है। वह केवल राजनीतिक स्वाधीनता का साहित्य ना होकर मनुष्य की एकता, समानता और भाईचारे का साहित्य भी है। भारतेंदु स्वदेशी आंदोलन के ही अग्रदूत ना थे वह समाज सुधारकों में भी प्रमुख थे।

भौगोलिक दृष्टि से भारतेंदु मंडल का विस्तार काशी से दिल्ली तक था। भारतेंदु मंडल के सदस्य माने जाते हैं— स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र (काशी), केशवराम भट्ट (पटना), प्रताप नारायण मिश्र (कानपुर), गोस्वामी राधा चरण (वृंदावन), लाला श्रीनिवास दास (दिल्ली), लाला सीताराम (इलाहाबाद), दामोदर शास्त्री सप्रे (काशी), कार्तिक प्रसाद खत्री (काशी), ठाकुर जगमोहन सिंह (काशी) अंबिका दत्त व्यास (काशी) रामकृष्ण वर्मा (काशी) राधा कृष्ण दास (काशी) ।ये लेखक अधिकतर काशी तथा अन्य पूर्वी नगरों के थे। भारतेंदु के व्यक्तित्व का प्रभाव वृत पश्चिम में वृंदावन और दिल्ली तक फैला हुआ था।

नवीन युग की वैज्ञानिक चेतना, यंत्रों के विकास के साथ छापेखानों की मशीनों के प्रचलन, बढ़ते औद्योगीकरण, नगरीकरण, राष्ट्रीय-राज्यों के उदय जैसी परिस्थितियों ने हिन्दी साहित्य के गद्य को बढ़ावा दिया। यह गद्य साहित्य उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक इतना प्रभावी हुआ कि वह कविता से अधिक महत्वपूर्ण हो उठा। इस युग के रचनाकारों ने भिन्न-भिन्न विधाओं में प्रयोग किये। जैसे- भारतेंदु (नाटक), श्रद्धा राम फुलौरी तथा लाला श्रीनिवास दास (उपन्यास), बाल कृष्ण और प्रताप नारायण मिश्र (निबंध), बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन (आलोचना)।भारतेंदु के यहां जो सतरंग फूटा था वह चतुर्दिक प्रकाश बनकर फैल गया।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा है "अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले पहल लाला श्रीनिवास दास का 'परीक्षा गुरु' ही निकला था। 'परीक्षा गुरु' का प्रकाशन 1882 में हुआ। श्रद्धा राम फिल्लौरी का 'भाग्यवती' लिखा तो 1877 में गया पर उसका प्रकाशन प्राय: एक दशक बाद हुआ। दोनों उपन्यासों के उद्धरण नीचे दिए गए हैं। नाटकों की भाषा अधिकतर काल, पात्र, परिस्थिति के अनुसार चलती है उपन्यास की भाषा इस तुलना में अधिक समरस होती है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपना संपूर्ण जीवन हिन्दी साहित्य की सेवा में समर्पित कर दिया‌। हिन्दी नाटक, गद्य, कविता और पत्रकारिता के क्षेत्र में इनका योगदान अविस्मरणीय है। इसके अतिरिक्त वे पत्रकार,वक्ता,निबंधकार एवं उत्कृष्ट कवि भी थे।हिन्दी साहित्य में खड़ी बोली में नाटक का शुरुआत का श्रेय भारतेंदु को जाता है। इन्होंने हिन्दी साहित्य में 72 ग्रंथों की रचना कर हिन्दी भाषा को नई बुलंदियों पर पहुँचा दिया। इसलिए सन् 1850–1900 के कालखंड को भारतेंदु युग के नाम से जाना जाता है। इन्होंने अपने युग के रचनाकारों को अलौकिक जगत से हटकर समाज में फैली कुरीतियों एवं मानव तथा तर्क पर आधारित रचना लिखने को प्रोत्साहित किया ।

सन् 1868 ई॰ में महज 18 वर्ष की आयु में उन्होंने 'कवि वचन सुधा' नामक पत्रिका प्रकाशित की जिसमें उस वक्त के बड़े-बड़े विद्वानों की कृतियाँ छपती थी। सन् 1873 ई॰ में 'हरिश्चंद्र मैगजीन' एवं 1874 ई॰ में स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए 'बाला बोधिनी' नामक पत्रिका प्रकाशित किया। उन्होंने हिन्दी साहित्य के दायरे का चतुर्मुखी विकास किया। उनके लेखन में दोहा, चौपाई, हरिगीतिका, छंद, कवित्त, सवैया आदि में उत्कृष्टता का परिचय मिलता है। सुमित्रानंदन पंत इनके हिन्दी साहित्य में योगदान की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं —

"भारतेंदु कर गए,भारती की वीणा निर्माण।
किया अमर स्पर्शो में, जिसका बहुविधि स्वर संधान।।"

भारतेंदु से पहले हिन्दी भाषा शैली के दो रूप प्रचलित थे- राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृतनिष्ठ भाषा शैली और दूसरी राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की फारसी मिश्रित हिन्दी भाषा शैली। दोनों ही शैलियाँ आम बोलचाल में जटिल थी। भारतेंदु ने इन दोनों में से कठिन शब्द निकालकर सरल खड़ी बोली को हिन्दी साहित्य में शामिल किया ।

सन् 1873 में अपनी पत्रिका 'हरिश्चंद्र मैगजीन' में हिन्दी भाषा की नई शैली खड़ी बोली को जन्म दिया। भारतेंदु से पूर्व नाटकों धार्मिक भावनाओं पर आधारित थे। उन्होंने नाटकों में सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, पौराणिक विषयों को शामिल किया।भारतेंदु के प्रमुख नाटक है। — 'भारत दुर्दशा', 'अंधेर नगरी', 'प्रेमजोगिनी', 'मुद्राराक्षस' जिनका आज भी रंगमंच पर मंचन किया जाता है। उन्होंने कुल 17 नाटकों की रचना की जिनमें मौलिक नाटक और अनूदित नाटक शामिल थे। भारतेंदु गद्य के लिए तो खड़ी बोली का प्रयोग करते थे किंतु पद्य ब्रजभाषा में रचते थे। उन्होंने अपने छोटे से जीवन काल में 48 प्रबंध काव्य, 21 काव्य ग्रंथ एवं मुक्तक रच डाले थे। 'कुछ आप बीती कुछ जगबीती' नामक उनकी उपन्यास की रचना उनकी असमय मृत्यु के कारण अधूरा रह गया जिसे लाला श्रीनिवास दास ने पहला उपन्यास 'परीक्षा गुरु' के नाम से लिखकर पूरा किया।

मातृभाषा की सेवा में उन्होंने अपना जीवन ही नहीं संपूर्ण धन भी अर्पित कर दिया। हिंदी भाषा की उन्नति का उनका मूल मंत्र था।

"निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे ना हिय को शूल ।।"

अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतेंदु हिन्दी साहित्य कोश के एक दैदीप्यमान नक्षत्र बन गए। 1971 की चर्चित फिल्म 'आनंद' की यह डायलॉग "जिंदगी लंबी नहीं...बड़ी होनी चाहिए।" हिन्दी साहित्य के महान विभूति 'भारतेंदु हरिश्चंद्र' पर सटीक बैठता है जिन्होंने अपने 35 वर्ष की अल्पायु में हिन्दी भाषा को चरम उत्कर्ष पर पहुँचा दिया।