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सामान्य अध्ययन २०१९/विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी-भारत

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सामान्य अध्ययन २०१९
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  • केंद्रीय जैव प्रौद्योगिकी विभाग के भूतपूर्व बायोटेक्नोलॉजिस्ट (Biotechnologists) और टेक्नोक्रेट (Technocrats) ने भारत की जैव प्रौद्योगिकी संस्था(Society of Biotechnology of India- SBPI) का शुभारंभ किया।

केंद्रीय जैव प्रौद्योगिकी विभाग,विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत कार्यरत है। SBPI एक गैर-लाभकारी संगठन है। यह आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी में मुख्य अनुसंधान की ओर परिवर्तनकारी दृष्टिकोण को बढ़ावा देगी ताकि इससे प्राप्त नतीजे आर्थिक और सामाजिक कल्याण के लिये अधिक उत्पादों एवं प्रौद्योगिकियों को जन्म दे सकें। SBPI अंतराल क्षेत्रों (Gap Areas) जो भारत की लाईफ साइंस प्रगति में एक बाधा है की ओर देश की अनुसंधान निधि बढ़ाने के लिये पूरक के रुप में कार्य करेगी। ये बाधाएँ मुख्यतः बुनियादी ढाँचे, मानव संसाधन, नियामक ढाँचे और अनुसंधान तथा विकास को अनुप्रयोगों में परिवर्तित करने में आती हैं। SBPI के सदस्यों को जैव प्रौद्योगिकी में बढ़ावा देने वाले क्षेत्रों जैसे- बीटी कॉटन (BT Cotton), पुनरावर्ती चिकित्सीय प्रोटीन (Recombinant Therapeutic Proteins) और टीके लगाने तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने का अनुभव है।

  • “विज्ञान समागम”(Vigyan Samagam) का उदघाटन कोलकाता के साइंस सिटी में विश्व की प्रमुख मेगा विज्ञान परियोजनाओं को एक साथ लाकर किया गया।

विज्ञान समागम प्रदर्शनी का मुंबई और बंगलूरू के बाद अब कोलकाता में 4 नवंबर से 31 दिसंबर, 2019 तक आयोजन किया जायेगा। परमाणु ऊर्जा विभाग तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा इस परियोजना का वित्तपोषण किया जा रहा है। इसके अलावा संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद (National Council of Science Museums- NCSM) इस प्रदर्शनी के आयोजन में भागीदार है। भारत अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव की शुरुआत वर्ष 2015 में की गई थी और यह देश का सबसे बड़ा वार्षिक वैज्ञानिक आयोजन बन गया है। उद्देश्य विज्ञान समागम का प्राथमिक लक्ष्य युवाओं को ब्रह्मांड के रहस्यों और क्रमिक विकास के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराना है। इसके अलावा उन्हें विज्ञान के क्षेत्र में कॅरियर बनाने हेतु उत्साहित और प्रेरित करना है जिससे वे राष्ट्र की बौद्धिक पूंजी एवं वृद्धि में योगदान दे सकें। विज्ञान समागम के अंतिम चरण के बाद इसका आयोजन 21 जनवरी से 20 मार्च, 2020 तक राष्ट्रीय विज्ञान केंद्र में किया जाएगा। इसके बाद यह नई दिल्ली में एक स्थायी प्रदर्शनी बनेगी जिसकी देखभाल राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद करेगी।

  • भाभा कवच भारत की सबसे हल्की और सबसे सस्ती बुलेटप्रूफ जैकेट है। इसे नई दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय पुलिस प्रदर्शनी 2019 में प्रदर्शित किया गया था।

इस बुलेटप्रूफ जैकेट का वज़न सिर्फ 6.6 किलोग्राम है (यह पारंपरिक जैकेट जिसका वज़न लगभग 17 किलोग्राम होता है, की तुलना में काफी हल्का है)। भाभा कवच को आयुध निर्माणी बोर्ड (Ordnance Factory Board) और मिश्र धातु लिमिटेड (Mishra Dhatu Nigam Limited-MIDHANI) जैसे रक्षा संगठनों को भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (Bhabha Atomic Research Centre-BARC) से कार्बन-नैनोमैटेरियल प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण द्वारा स्वदेशी रूप से विकसित किया गया था।

  • वैज्ञानिक और इंजीनियरिंग अनुसंधान को वित्तपोषित करने के उद्देश्य से विज्ञान एवं इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (SERB) द्वारा वैज्ञानिक तथा उपयोगी गहन अनुसंधान उन्नति (Scientific and Useful Profound Research Advancement-SUPRA) नामक एक नई योजना प्रस्तावित है।
इस योजना की शुरुआत उन अनुसंधानों को आकर्षित करने के लिये की जा रही है जो किसी समस्या के लिये लीक से हटकर समाधान खोज रहे हैं। इसके अतिरिक्त इस योजना का कार्य उन विचारों को वित्तपोषित करना है जो अध्ययन के नए क्षेत्रों,नई वैज्ञानिक अवधारणाओं,नए उत्पादों और प्रौद्योगिकियों को जन्म दे सकते है।
विज्ञान एवं इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (SERB) की स्थापना विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के तहत वर्ष 2009 में सांविधिक निकाय के रूप में की गई। इसका उद्येश्य वैज्ञानिक विषयों में अनुसंधान को बढ़ावा देना और वित्तीय सहायता प्रदान करना है।

इस योजना के तहत पहले वर्ष में 15 से 30 प्रस्तावों को वित्तपोषित करने की योजना बनाई जा रही है, इस संख्या को आगे के वर्षों में और अधिक बढ़ा दिया जाएगा। वित्तपोषण के लिये मंज़ूरी प्राप्त होने पर एक प्रस्ताव को तीन सालों के लिये आर्थिक सहायता प्रदान की जाएगी तथा इस अवधि को 2 वर्ष और बढ़ाया जा सकता है।

  • 5वाँ भारतीय अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव-2019 का आयोजन कोलकाता में 5 से 8 नवंबर (4 दिवसीय) तक किया गया।

थीम:-‘राइजेन इंडिया’- राष्ट्र को सशक्त बनाता अनुसंधान,नवाचार और विज्ञान (RISEN India- Research, Innovation, Science Empowering the Nation) रखी गई है। इसका मुख्य उद्देश्य जनसाधारण के बीच विज्ञान के प्रति जागरूकता का प्रसार करना तथा पिछले कुछ वर्षों में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत का योगदान और लोगों को इससे प्राप्त लाभों को प्रदर्शित करना है। इसका लक्ष्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में समावेशी विकास हेतु रणनीति तैयार करना है।

भारतीय अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव-2019:- भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से जुड़े मंत्रालयों एवं विभागों और विज्ञान भारती द्वारा आयोजित यह एक वार्षिक आयोजन है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की स्वायत्त संस्था विज्ञान प्रसार IISF-2019 का समन्वय करने वाली नोडल एजेंसी है। IISF-2019 भारत और विश्व के दूसरे देशों के विद्यार्थियों,नवाचारी,शिल्पकारों,किसानों,वैज्ञानिकों तथा तकनीकविदों का समागम है। इसमें विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों को समायोज़ित किया जाएगा।
महोत्सव के एक मुख्य आकर्षण
  1. छात्र विज्ञान गाँवके तहत देश के विभिन्न हिस्सों के करीब 2500 स्कूली विद्यार्थियों को आमंत्रित किया गया।
  2. युवा वैज्ञानिक सम्मेलन- इस कार्यक्रम में शामिल युवा वैज्ञानिक और शोधकर्त्ता,अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वैज्ञानिकों तथा प्रौद्योगिकीविदों से सीधा संवाद कर सकेंगे।
  3. विज्ञानिका- इसके अंतर्गत विज्ञान संचार की अनेक विधाओं से जुड़े कार्यक्रम आयोजित किये जाएंगे। साथ हीं महिला वैज्ञानिक एवं उद्यमियों की सभा के अंतर्गत महिलाओं में विज्ञान, प्रौद्योगिकी और उद्यमिता विकास से जुड़े नए अवसरों की खोज की जाएगी।
  • MOSAiC जर्मनी में अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट (Alfred Wegener Institute) द्वारा प्रायोजित इतिहास के सबसे बड़े आर्कटिक अभियान MOSAiC (Multidisciplinary Drifting Observatory For the Study of Arctic Climate) के लिये एकमात्र भारतीय वैज्ञानिक, विष्णु नंदन को चुना गया है।

MOSAiC आर्कटिक अभियान में जर्मन आइसब्रेकर पोत पोलरस्टर्न का प्रयोग किया जाएगा, यह पोत मध्य आर्कटिक में समुद्री बर्फ की एक बड़ी चादर पर अवस्थित है। इस अभियान का उद्देश्य आर्कटिक में वायुमंडलीय, भू-भौतिकीय, महासागरीय और अन्य सभी संभावित प्रभावों का अध्ययन करना है जिससे मौसम प्रणालियों में हो रहे बदलावों का अधिक सटीक पूर्वानुमान लगाया जा सके। मानवजनित गतिविधियों के परिणामस्वरुप इस वर्ष, पिछले 50 वर्षों में दूसरी बार सबसे कम समुद्री बर्फ आवरण है। बर्फ का आवरण कम होने के कारण आर्कटिक महासागर पर सूर्य के प्रकाश का ज़्यादा प्रभाव देखा जाता है जिससे यहाँ की समुद्री सतह के तापमान में वृद्धि होती है। आर्कटिक महासागर के तापमान में वृद्धि होने के कारण हिंद, प्रशांत और अटलांटिक महासागरों के तापमान तापमान में वृद्धि होती है जिसके परिणामस्वरूप वैश्विक जलवायु पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

  • वर्ल्डस्किल्स अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता 2019 में भारत के प्रतिनिधित्व हेेतू भारत सरकार के कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय (MSDE) ने एक 48 सदस्यीय दल की घोषणा की है।

भारत के 17 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के 48 प्रतिभागी 22 -27 अगस्त 2019 तक कज़ान, रूस में होने वाली 6 दिवसीय द्विवार्षिक प्रतियोगिता में भाग लेंगे। उम्मीदवारों को देशभर में 500 + जिला, राज्य, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं के माध्यम से चुना गया। प्रतियोगियों की औसत आयु 22 वर्ष है और सबसे कम उम्र 17 वर्ष है। इस प्रतियोगिता को ‘ओलिंपिक फॉर स्किल्स’ अर्थात् कुशलताओं का ओलंपिक भी कहा जाता है। लगभग 60 देशों के 1,500 से अधिक प्रतियोगी इस विशाल आयोजन में 55 कौशल प्रतियोगिताओं में प्रतिस्पर्द्धा करेंगे। भारत 44 प्रकार के कौशल क्षेत्रों में भाग ले रहा है, जिनमें मोबाइल रोबोटिक्स, प्रोटोटाइप मॉडलिंग, हेयर ड्रेसिंग, बेकिंग, वेल्डिंग, कार पेंटिंग, फ्लोरिस्ट्री आदि शामिल हैं। वर्ल्डस्किल्स 2019 के लिये प्रतिभागियों का चुनाव वर्ल्डस्किल्स 2019 के लिये भारत की टीम का चुनाव जनवरी 2018 में इंडियास्किल्स कॉम्पीटीशन के तहत की गई थी। इसके अंतर्गत 22 से अधिक राज्यों ने मिलकर मार्च-अप्रैल 2018 में लगभग 500 ज़िला एवं राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं का आयोजन किया था। विजेताओं के बीच पुनः चार क्षेत्रीय प्रतियोगिताएँ जयपुर, लखनऊ, बेंगलुरु और भुवनेश्वर में आयोजित की गई थी। क्षेत्रीय प्रतियोगिताओं के विजेताओं ने पुनः 2- 6 अक्तूबर 2018 तक दिल्ली स्थित एरोसिटी ग्राउंड्स में आयोजित नेशनल कॉम्पीटीशन में परस्पर मुकाबला किया। इसके बाद इन्हें प्रशिक्षण प्रदान किया जा रहा था। पहल में भागीदारी मारुति सुजुकी, महिंद्रा एंड महिंद्रा, टोयोटा, फेस्टो, VLCC, गोदरेज, ऐग्जाल्टा, अपोलो, बर्जर पेंट्स, सिस्को, कैप्ले, सेंट गोबैन, इंस्टिट्यूट ऑफ़ होटल मैनेजमेंट (आइएचएम), श्‍नाईडर, पर्ल अकैडमी, एनटीटीएफ, दाईकिन, L&T आदि सहित 100 से अधिक कॉर्पोरेट कंपनियाँ एवं शैक्षणिक संस्थान इस पहल में सहयोग कर रहे हैं। इन कॉर्पोरेट संगठनों ने एक दक्ष प्रशिक्षक/विशेषज्ञ की पहचान करने में भी मदद की है जो प्रत्येक प्रतियोगी को प्रत्यक्ष व्यावहारिक प्रशिक्षण देते हैं और दैनिक आधार पर उनकी प्रगति पर नज़र रखते हैं।

दूरसंचार विभाग द्वारा उपलब्ध सभी स्पेक्ट्रम बैंड में 5G के परीक्षण के लिये निम्नलिखित दिशा-निर्देश जारी किये गए है: दूरसंचार विभाग केवल परीक्षण के उद्देश्य से लाइसेंस जारी करेगा जिसकी वैद्यता 3 माह से 2 साल की होगी तथा यह समयावधी परीक्षण के उद्देश्य पर निर्भर करेगी। इस उद्देश्य के लिये विभाग द्वारा 400 मेगाहर्ट्ज़ स्पेक्ट्रम का आवंटन किया जाएगा। 5G सेवाओं के परीक्षण के लिये स्पेक्ट्रम (Quantum of Spectrum) का आवंटन आवश्यकता और/अथवा प्रौद्योगिकी क्षमताओं के प्रदर्शन के अनुसार किया जा सकेगा। उदाहरण के लिये, सामान्यतः स्पेक्ट्रम का आवंटन 3.5 गीगाहर्ट्ज़ बैंड में 100 मेगाहर्ट्ज़ तक, जबकि 26 गीगाहर्ट्ज़ बैंड में 400 मेगाहर्ट्ज़ हो सकता है।

  • रोमिप्लोस्टिम(Romiplostim)नामक दवा की शुरुआत भारत की ड्रग निर्माता कंपनी इंटास फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड ने इम्यून थ्रोम्बोसाइटोपेनिया (Immune Thrombocytopenia - ITP) के रोगियों के इलाज़ के लिये की है।

रोमिप्लोस्टिम दवा वर्तमान दवाओं से काफी सस्ती है।

इम्यून थ्रोम्बोसाइटोपेनिया (Immune Thrombocytopenia - ITP) एक ऑटोइम्यून ब्लड डिसऑर्डर (Autoimmune Blood Disorder) है जिसमें रक्त में प्लेटलेट्स की संख्या कम हो जाती है।

इस नई दवा की कीमत मौजूदा दवाओं की तुलना में पाँच गुना कम है। वर्तमान में इस चिकित्सा पर लगभग 60,000 रुपए प्रतिमाह खर्च होता है,जबकि इस दवा के इस्तेमाल से यह व्यय घटकर 12,000 रुपए हो जाएगा।

  • भारत के राष्ट्रीय पादप जीनोम अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने चावल की फसल में एक प्रमुख रोगजनक कवक ‘राइजोक्टोनिया सोलानी’ (Rhizoctenia Solani) की आव्रामकता से जुड़ी आनुवंशिक विविधता को उजागर किया है। राइजोक्टोनिया सोलानी कवक की वह प्रजाति है जिससे चावल में शीथ ब्लाइट (Sheath Blight) रोग होता है।

राष्ट्रीय पादप जीनोम अनुसंधान संस्थान, भारत सरकार के जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) का एक स्वायत्त संस्थान है। इस संस्थान की सहायता से भारत पादप आनुवंशिकी (प्लांट जीनोमिक्स) के क्षेत्र में प्रमुख योगदानकर्त्ता बन गया है।

  • केरल में फूट बैट (Fruit Bat)/(एक प्रकार का चमगादड़) की पहचान घातक निपाह वायरस के वाहक के रूप में की गई है। फूट बैर कीटभक्षी चमगादड़ से अलग होते हैं। आहार के लिये फलों का पता लगाने हेतु ये सूँघने की क्षमता का उपयोग करते है। ये दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में बड़े पैमाने पाए जाते है और इन्हें ‘फ्लाइंग फॉक्स’ (Flying Fox) भी कहा जाता है।वर्ष 1999 में सर्वप्रथम मलेशिया में निपाह वायरस की खोज की गई थी।
  • एंथ्रेक्स (Anthrax) एक जानलेवा संक्रामक रोग है जो एन्थ्रासिस (Anthracis) जीवाणुओं के संपर्क में आने से होता है। यह इंसानों के साथ-साथ कई जानवरों जैसे- घोड़ों, गायों, बकरियों और भेड़ों को भी प्रभावित कर सकता है।

एंथ्रेक्स के जीवाणु मिट्टी में मौजूद होते हैं और कई वर्षों तक अव्यक्त (Latent) अवस्था में रहते हैं। हालाँकि अनुकूल पर्यावरणीय परिस्थियों में ये जीवाणु सक्रिय हो जाते हैं और संक्रमित कर सकते हैं। क्वांटम ऑप्टोइलेक्ट्रॉनिक

प्रौद्योगिकी विकास के लिए सरकारी प्रयास

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  • भारत सरकार सुरक्षित आंतरिक उपयोग के लिये व्हाट्सएप और टेलीग्राम जैसे लोकप्रिय मैसेजिंग प्लेटफार्मों के समरूप एक सरकारी इंस्टेंट मैसेजिंग सिस्टम (Government Instant Messaging System- GIMS) का परीक्षण कर रही है।

वर्तमान में GIMS का ओडिशा सहित कुछ राज्यों में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में परीक्षण किया जा रहा है। इसका डिज़ाइन और विकास राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (National Informatic Centre- NIC) की केरल यूनिट द्वारा किया गया है। इसका निर्माण केंद्र और राज्य सरकार के विभागों तथा संगठनों में कार्यरत कर्मचारियों हेतु अंतः और अंतर्संगठन संचार के लिये किया गया है। GIMS में एकल और समूह संदेश के अलावा सरकारी तंत्र में पदानुक्रमों को ध्यान में रखते हुए दस्तावेज़ और मीडिया साझाकरण के भी प्रावधान हैं।

GIMS विदेशी संस्थाओं के स्वामित्व वाले एप्लीकेशंस से संबंधित सुरक्षा चिंताओं से मुक्त होने में लाभदायक होगी। WhatsApp की तरह GIMS में भी एकल संदेश के लिये एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन (End-To-End Encryption) की सेवा उपलब्ध है।

  • वैज्ञानिक और उपयोगी गहन अनुसंधान उन्नति (Scientific and Useful Profound Research Advancement-SUPRA) नामक नई योजना की घोषणा करने पर विचार विज्ञान और इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड द्वारा किया जा रहा है।

उद्येश्य

  1. वैज्ञानिक और इंजीनियरिंग अनुसंधान को वित्तपोषित करना।
  2. उन अनुसंधानों को आकर्षित करना जो किसी समस्या के लिये लीक से हटकर समाधान खोज रहे हैं।
  3. उन विचारों को वित्तपोषित करना है जो अध्ययन के नए क्षेत्रों,नई वैज्ञानिक अवधारणाओं,नए उत्पादों और प्रौद्योगिकियों को जन्म दे सकते है।

इस योजना के अंतर्गत

  1. वैज्ञानिक और इंजीनियरिंग क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों को वित्तीय सहायता प्राप्त करने के लिये SERB के समक्ष एक प्रस्ताव रखना होगा।
  2. इस प्रस्ताव की प्रारंभिक जाँच SERB द्वारा गठित शीर्ष वैज्ञानिकों के एक पैनल द्वारा की जाएगी।
  3. उपरोक्त चरण को पार करने के पश्चात् प्रस्ताव का मूल्यांकन प्रत्येक विषय के लिये विशेष रूप से गठित विशेषज्ञ समीक्षा समिति द्वारा किया जाएगा।

इस समिति को पूर्ण स्वतंत्रता होगी कि यदि उसे लगता है कि किसी विशेष प्रस्ताव के मूल्यांकन के लिये विशेषज्ञता भारत में मौजूद नहीं है,तो वह उस विशेषज्ञता को विदेशों से भी प्राप्त कर सकती है।

  1. पहले वर्ष में 15 से 30 प्रस्तावों को वित्तपोषित करने की योजना बनाई जा रही है, इस संख्या को आगे के वर्षों में और अधिक बढ़ा दिया जाएगा।
  2. वित्तपोषण के लिये मंज़ूरी प्राप्त होने पर एक प्रस्ताव को तीन सालों के लिये आर्थिक सहायता प्रदान की जाएगी, इस अवधि को 2 वर्ष और बढ़ाया जा सकता है।

विज्ञान और इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (Science and Engineering Research Board-SERB): यह एक सांविधिक निकाय है जिसकी स्थापना संसद के अधिनियम (द साइंस एंड इंजीनियरिंग रिसर्च बोर्ड एक्ट,2008) द्वारा की गई थी। बोर्ड की अध्यक्षता विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग में भारत सरकार के सचिव द्वारा की जाती है। इसके अलावा देश के वरिष्ठ सरकारी अधिकारी और प्रसिद्ध वैज्ञानिक इस बोर्ड के सदस्य होते हैं। बोर्ड की स्थापना का उद्देश्य:

  1. विज्ञान और इंजीनियरिंग में बुनियादी अनुसंधान को बढ़ावा देना।
  2. बुनियादी अनुसंधान हेतु वैज्ञानिकों, शैक्षणिक संस्थानों, अनुसंधान एवं विकास प्रयोगशालाओं और अन्य एजेंसियों को वित्तीय सहायता प्रदान करना।
  • भारत के पहले ह्यूमनॉइड (मानवाकार) पुलिस रोबोट या रोबोकॉप (Robocop) KP-BOT को केरल पुलिस द्वारा सेवा में शामिल किया गया है और इसे पुलिस मुख्यालय,तिरुवनंतपुरम में सब-इंस्पेक्टर (SI) का पद दिया गया है। राष्ट्र के उत्तरोत्तर स्वचालित (Automated) भविष्य की धारणा के चलते केरल पुलिस विभाग देश का ऐसा पहला पुलिस विभाग बन गया है जिसने पुलिस कार्य के लिये रोबोट तैनात किया है।
  • "GraspMan",IIT मद्रास के शोधकर्त्ताओं ने फील्ड एवं औद्योगिक अनुप्रयोगों के लिये एक मल्टीमॉडल रोबोटिक प्रणाली विकसित की है जिसे नाम दिया गया है क्योंकि यह बहुत अच्छी ग्राही, गमन और कार्य-साधन (Grasping, Locomotion and Manipulating) क्षमताएँ रखती है। इस प्रणाली में एक जोड़ी ग्रास्पर्स (Graspers) शामिल हैं जो वस्तुओं को सुरक्षित तरीके से पकड़ सकते हैं और मानव के हाथ की तरह कार्य-साधन में सक्षम हैं। ASME ​​(The American Society of Mechanical Engineers) की पीयर-रिव्यूड पत्रिका ‘जर्नल ऑफ मैकेनिज्म एंड रोबोटिक्स’ ने इस नवीनतम विकास पर एक लेख प्रकाशित किया है।
  • पश्चिमी और मध्य रेलवे ने बायोमेट्रिक टोकन सिस्टम (Biometric Token System-BTS) शुरू किया है जो ट्रेन के अनारक्षित कोच में बोर्डिंग की प्रक्रिया को सरल बनाता है।

बायोमेट्रिक टोकन सिस्टम (BTS) एक ऐसी प्रणाली है जिसमें सामान्य कोच (अनारक्षित कोच) में यात्रा करने वाले यात्रियों को ट्रेन के प्रस्थान से तीन घंटे पूर्व एक टोकन दिया जाता है। यह टोकन पहले आओ, पहले पाओ (First-Come, First-Served Basis) के आधार पर दिया जाता है और इन पर एक सीरियल नंबर अर्थात् क्रम संख्या अंकित होती है। इस सीरियल नंबर के क्रमानुसार ही यात्री ट्रेन में सवार होते हैं। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री ने IIT दिल्ली में ‘TechEx’ नामक एक प्रौद्योगिकी प्रदर्शनी का उद्घाटन किया।[] इस प्रदर्शनी का आयोजन मानव संसाधन विकास मंत्रालय की दो महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं (इम्पैक्टिंग रिसर्च, इनोवेशन एंड टेक्नोलॉजी-IMPRINT, उच्चतर आविष्कार योजना-UAY) के तहत विकसित उत्पादों को प्रदर्शित करने के लिये किया जा रहा है।

TechEx एक अनूठा प्रयास है जो अनुसंधानकर्त्ताओं को उनका कार्य प्रदर्शित करने के लिये एक शानदार मंच प्रदान कराता है और उन्हें उनके संबंधित क्षेत्रों में सर्वश्रेष्ठ कार्य करने के लिये प्रेरित करता है।

क्या-क्या है TechEx में? प्रदर्शनी के दौरान कुल 142 पोस्टरों के अतिरिक्त IMPRINT के तहत विकसित 50 उत्पादों एवं UAY के तहत विकसित 26 उत्पादों का प्रदर्शन किया जाएगा। इनमें से कई उत्पादों का वाणिज्यिक उत्पादन शीघ्र शुरू होने वाला है।

उद्देश्‍य IIT संस्‍थानों में नए आविष्‍कारों को बढ़ावा देना है ताकि विनिर्माण उद्योगों की समस्‍याओं को हल किया जा सके, आविष्‍कार करने वाली मानसिकता को प्रोत्‍साहन मिले, शिक्षा जगत और उद्योग के बीच समन्‍वय लाया जा सके तथा प्रयोगशालाओं और अनुसंधान सुविधाओं को सुदृढ़ किया जा सके। इस परियोजना की शुरुआत 6 अक्तूबर, 2015 को की गई थी। UAY के तहत 388.86 करोड़ रुपए की कुल लागत से कुल 142 परियोजनाओं को स्वीकृत किया गया था जिनमें 83 पहले चरण में एवं 59 दूसरे चरण में थी। UAY परियोजनाओं का वित्तपोषण संयुक्त रूप से मानव संसाधन विकास मंत्रालय, प्रतिभागी मंत्रालयों एवं उद्योग द्वारा 50:25:25 के अनुपात में किया गया है।
IMPRINT परियोजना
तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा 5 नवंबर, 2015 को ‘इंप्रिंट इंडिया’ का शुभारंभ किया गया था।

‘इंप्रिंट इंडिया’ भारत के लिये महत्त्वपूर्ण दस प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में बड़ी इंजीनियरिंग एवं प्रौद्योगिकी चुनौतियों के समाधान हेतु अनुसंधान के लिये एक खाका विकसित करने से संबंधित देश भर के IIT एवं IISC की संयुक्त पहल है। यह पहल उच्चतर शिक्षा के भारतीय संस्थानों को उनकी क्षमता को महसूस कराने में सक्षम बनाती है एवं विश्व-स्तरीय संस्थानों के रूप में उभरने में मदद करती है। दस मुख्य विषयों पर फोकस: ‘इंप्रिंट इंडिया’ के अंतर्गत दस विषय-वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इसके अंतर्गत शामिल दस विषय हैं- स्वास्थ्य देखभाल, कंप्यूटर साइंस एवं आईसीटी, एडवांस मैटिरियल्स, जल संसाधन एवं नदी प्रणाली, सतत् शहरी डिज़ाइन, प्रतिरक्षा, विनिर्माण, नैनो-टेक्नोलॉजी हॉर्डवेयर, पर्यावरण विज्ञान एवं जलवायु परिवर्तन तथा ऊर्जा सुरक्षा। नोट: विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Science and Technology-DST) के सहयोग से यह परियोजना, एक पृथक कार्य-योजना के रूप में संचालित की जा रही है।

UAY योजना

जीव विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में भारत का योगदान

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  • हाल ही में पुणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (Indian Institute of Science Education and Research- IISER) के वैज्ञानिकों की एक टीम ने ‘McrBC की परमाणु संरचना’ का निर्धारण किया है।

McrBC एक जटिल बैक्टीरियल प्रोटीन (Bacterial Protein) है,जो एक जीवाणु कोशिका में वायरल संक्रमण को रोकने में मदद करता है और आणविक कैंची (Molecular Scissors) के रूप में कार्य करता है।

  • IndiGen पहल की शुरूआत अप्रैल 2019 में वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) द्वारा की गई। इस परियोजना के तहत देश के लगभग 1,000 ग्रामीण युवाओं का जीनोम सैम्पल एकत्र करके इंडीजिनस जेनेटिक मैपिंग (Indigenous Genetic Mapping) द्वारा इनके जीनोम का अनुक्रमण किया जाएगा।

इसका कार्रयान्वयन CSIR के इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी (CSIR-IGIB),नई दिल्ली एवं सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (CSIR-CCMB), हैदराबाद द्वारा कार्यान्वित किया गया। 1008 भारतीयों के जीनोम अनुक्रमण और कम्प्यूटेशनल विश्लेषण को छह माह की अवधि में पूरा कर लिया गया जो एक निर्धारित समयसीमा में औद्योगिक पैमाने पर मापनक्रम को प्रदर्शित करता है। यह प्रगति अनुमानकारी और निवारक चिकित्सा क्षेत्र (predictive and preventive medicine) के विकास में एक बड़े कदम का संकेत देती है।

  • कुलिकोइड्स मक्खी (Culicoides Bee):-विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (Department Of Science & Technology) द्वारा कराए गए एक शोध के अनुसार,इसके काटने से जानवरों की मौत हो रही है।
इस मक्खी का आकर चींटी से कई गुना छोटा होता है।
यह मक्खी ब्लूटंग (Bluetongue) वायरस की वाहक है,जो दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया से क्रॉस ब्रीड कर लाई गई भेड़ों में पाया गया।
इसके काटने के बाद जानवरों की जीभ नीली पड़ जाती है तथा वे कमज़ाेर हो जाते हैं।
इसके कारण उत्तर प्रदेश में ही प्रत्येक वर्ष लगभग 400 जानवरों की मौत हो रही है।
इसके अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, जम्मू-कश्मीर, गुजरात, हरियाणा और महाराष्ट्र आदि राज्य भी इससे प्रभावित हो रहे हैं।
क्रानियोपैगस ट्विन्स
  • क्रानियोपैगस ट्विन्स(Craniopagus Twins) की सफलतापूर्वक सर्जरी दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) में किया गया।

भारत में यह पहली सफल क्रानियोपैगस जुड़वा बच्चों को अलग करने की सर्जरी थी जिसमें दोनों बच्चे जीवित हैं। वैश्विक स्तर पर 50 वर्षों के दौरान इस तरह की महज़ दर्जन भर सर्जरी ही सफल हो सकी हैं। सर्जिकल प्लानिंग,मस्तिष्क और खोपड़ी मॉडल विकास (Brain and Skull Model Development) के लिये 3D प्रिंट मॉडल प्रौद्योगिकी, शिराओं की बाईपास सर्जरी तथा लगातार देखभाल के लिये आधुनिक तकनीकी की आवश्यकता होती है।

क्रानियोपैगस(Craniopagus):-ऐसे जुड़वाँ बच्चे जिनके सिर आपस में एक साथ जुड़े होते है। यह जन्मजात होने वाली एक दुर्लभ समस्या है। इस तरह से जुड़े हुए बच्चे आनुवंशिक रूप से तथा एक समान जेंडर के होते हैं।
  • बंगलूरु स्थित भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान (Indian Institute of Horticulture Research- IIHR) ने आम की एक नवीनतम किस्म, अर्का सुप्रबाथ (Arka Suprabath)विकसित की है। आम की यह नवीनतम किस्म अलग-अलग किस्मों को क्रॉस कराके विकसित की गई है जिसका जीवन काल लगभग 60 वर्ष है। 10 वर्षों के शोध के पश्चात् विकसित अर्का सुप्रबाथ आम्रपाली (दशहरी और नीलम का एक क्रॉस) और अर्का अनमोल (अल्फांसो और जनार्धन पसंद का एक क्रॉस) का उपयोग करके विकसित किया गया एक डबल-क्रॉस हाइब्रिड है।

अर्का सुप्रबाथ एक दुर्लभ किस्म है क्योंकि इसमें आम्रपाली के गूदे के रंग के साथ अल्फांसो का आकार एवं एक अलग स्वाद पाया गया है। अन्य किस्मों की तुलना में इसमें कम रेशे पाए जाते हैं। अर्का सुप्रबाथ किस्म की इस फसल को व्यावसायिक रूप से उपलब्ध होने में अभी लगभग चार साल लगेंगे।

  • कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज तथा मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन के तहत तृतीयक देखभाल अस्पताल द्वारा कैंसर उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया ‘हेलिकोबैक्टर पाइलोरी’ (Helicobacter pylori) पर अध्ययन किया गया।

यह बैक्टीरिया मानव शरीर में कैंसर का कारक है।मानव शरीर में उपस्थित बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक प्रतिरोध (Antibiotic Resistance) के गुण पाए गए हैं। वैज्ञानिकों द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार, कैंसर की तीन दवाओं मेट्रोनिडाज़ोल, लेवोफ़्लॉक्सासिन तथा क्लेरिथ्रोमाइसिन का इस बैक्टीरिया पर प्रभाव कम हो गया है इस बैक्टीरिया (हेलिकोबैक्टर पाइलोरी) ने इन दवाओं के प्रति प्रतिरोधी गुण विकसित कर लिया है। अब ये दवाएँ अल्सर, गैस्ट्रिक एवं आमाशय के कैंसर के इलाज में अधिक राहत देने में सक्षम नहीं हैं।

  • भारतीय और ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने सिज़ोफ्रेनिया से संबंधित एक नए जीन (NAPRT1) की पहचान की है।यह जीन सिज़ोफ्रेनिया रोगियों के एक बड़े जीनोमिक डेटासेट में विटामिन बी3 चयापचय में शामिल एक एंजाइम का कूटलेखन (Encode) करता है।इस अध्ययन को मुख्य रूप से यूरोपीय वंश के निवासियों में किया गया जहाँ सिज़ोफ्रेनिया से ग्रस्त रोगियों की एक बड़ी संख्या रहती है।

सिज़ोफ्रेनिया एक मानसिक विकार है जो रोगी की सोच, भाषा, धारणा तथा स्वयं की भावना को बहुत अधिक प्रभावित करता है। सिज़ोफ्रेनिया के मरीज वास्तविक दुनिया से कट जाते हैं। इस बीमारी से ग्रसित दो मरीजों के लक्षण हर बार एक जैसे नहीं होते। ऐसे में इस बीमारी का पता लगाना कठिन हो जाता है। सिज़ोफ्रेनिया के कारण आनुवंशिक वायरल संक्रमण भ्रूण कुपोषण प्रारंभिक जीवन के दौरान तनाव जन्म के समय माता-पिता की आयु प्रभाव मतिभ्रम भ्रम कम बोलना सूचना और निर्णय लेने की क्षमता को कम करना ध्यान केंद्रित करने में परेशानी या ध्यान देना आदि सिज़ोफ्रेनिया का इलाज सिजोफ्रेनिया एक ऐसी स्थिति है जो सारी जिंदगी रहती है, सभी प्रकार के सिजोफ्रेनिया का इलाज एक ही तरीके से किया जाता है। बीमारी के तथ्यों, गंभीरता और लक्षणों के आधार पर इसके इलाज के तरीकों में अंतर हो सकता है।

  • पिपेरिन काली मिर्च (Black Pepper) में पाया जाने वाला एक प्राकृतिक अल्कलॉइड है। हाल ही में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (Indian Institute of Technology-IIT) के वैज्ञानिकों ने इसके चिकित्सीय गुणों का अध्ययन किया।

अध्ययन के अनुसार, पिपेरिन संगुणित RNA के संपर्क में आकर न्यूरोनल कोशिकाओं में होने वाली विषाक्त्तता के स्तर को कम करने का गुण पाया जाता है। पिपेरिन में एंटी-कार्सिनोजेनिक (Anti-Carcinogenic), एंटीऑक्सिडेंट (Antioxidant), नेफ्रॉन-प्रोटेक्टिव (Nephron-Protective), एंटी-डिप्रेसेंट और न्यूरोप्रोटेक्टिव आदि गुण पाए जाते हैं। इसलिये इसकी चिकित्सीय क्षमता महत्त्वपूर्ण है।

  • भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के जबलपुर स्थित राष्ट्रीय जनजाति स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान के शोधकर्त्ताओं ने हाल ही में मलेरिया परजीवी के शरीर में आनुवंशिक उपक्रम के तहत एक जैवसूचक/बायोमार्कर (ग्लूटामेट डिहाइड्रोजनेज़) की पहचान की है।

इसके माध्यम से बीमारी के प्रति अधिक संवेदनशील नैदानिक/चिकित्सकीय परीक्षण विकसित करने में सहायता प्राप्त हो सकती है। जैवसूचक/बायोमार्कर एक प्रमुख आणविक या कोशिकीय घटनाएँ हैं जो किसी विशिष्ट पर्यावरणीय संपर्क को स्वास्थ्य के लक्षणों एवं परिणामों से जोड़ते हैं। पर्यावरणीय रसायनों के संपर्क में आने, पुरानी मानव बीमारियों के विकास और रोग के लिये बढ़ते खतरे के बीच उपसमूहों की पहचान करने में जैवसूचक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

  • लुलिकोनाज़ोल(Luliconazole)हमदर्द इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड रिसर्च (दिल्ली) के शोधकर्त्ताओं द्वारा विकसित एक विशिष्ट पारभासी नाखून रोगन है।जो एक प्रकार की कवक-प्रतिरोधी (Antifungal drug) औषधि है तथा ओनिकोमाइकोसिस (नखकवकता) (Onychomycosis) के उपचार में सहायक है।

इस दवा में, जल्दी सूखने वाले बहुलक (Polymer) मिलाया गया है और इसे नेल पॉलिश की तरह आसानी से प्रयोग किया जा सकता है। शोधकर्त्ताओं ने इस दवा का परीक्षण गौवंशीय पशुओं के खुरों पर किया, क्योंकि उनकी संरचना मानव नाखूनों के समान होती है।

  • ओनिकोमाइकोसिस (Onychomycosis):-यह सामान्यतः जीवों के पैरों और हाथों के नाखूनों में होने वाला कवकीय संक्रमण (Fungal Infection) है जो ट्राइकोफाइटन रूब्रम (Trichophyton rubrum) नामक कवक के कारण होता है।

ओनिकोमाइकोसिस संक्रमण नाखूनों से संबंधित लगभग आधे से अधिक बीमारियों के लिये ज़िम्मेदार होता है। इसके कारण नाखून टूटने लगते हैं, उनका रंग मलिन हो जाता है और नाखूनों के आकार में भी विकृति उत्पन्न हो जाती है। यह संक्रमण हाथों के नाखूनों की तुलना में पैरों के नाखूनों को अत्यधिक प्रभावित करता है क्योंकि पैरों के नाखूनों की वृद्धि धीमी गति से होती है, रक्त आपूर्ति कम होती है और प्रायः ये अंधेरे और नम वातावरण के संपर्क में रहते हैं तथा ये सभी परिस्थितियाँ कवक वृद्धि के अनुकूल होती हैं।

  • प्रोजेक्ट मानव’जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) द्वारा प्रारंभ मानव: ह्यूमन एटलस पहल (MANAV: Human Atlas Initiative) मानव शरीर के प्रत्येक ऊतक की मैपिंग के लिये एक परियोजना है ताकि विभिन्न प्रकार की बीमारियों से जुड़े ऊतकों और कोशिकाओं की गहन जानकारी तथा भूमिकाओं का बेहतर ढंग से पता लगाया जा सके।[]

इस परियोजना से निर्मित डेटाबेस शोधकर्त्ताओं को मौजूदा कमियों को सुधारने और भविष्य में रोगों की पहचान एवं निदान से जुड़ी परियोजनाओं में मदद करेगा। यह डेटाबेस, बीमारी के कारणों का पता लगाने में मदद कर सकता है, विशिष्ट मार्गों को समझ सकता है और अंततः ऊतकों एवं कोशिकाओं से जुड़े शरीर के रोग चरणों की व्याख्या कर सकता है। इसके मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं: बेहतर जैविक अंतर्दृष्टि के लिये शारीरिक और आणविक मानचित्रण। भावी सूचक गणना के माध्यम से रोग मॉडल विकसित करना। समग्र विश्लेषण और दवा विकास की ओर बढ़ना।

भौतिक तथा रसायन विज्ञान के क्षेत्र में भारत का योगदान

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  • स्क्वेरिन (SQUARAINE)-हाल ही में IIT (BHU), वाराणसी के शोधार्थियों ने तांबे को क्षरण से बचाने के लिये ‘फ्लोटिंग फिल्म ट्रांसफर मैथड’ (Floating Film Transfer Method) का प्रयोग किया। इस विधि के अंतर्गत एक कार्बनिक पदार्थ ‘स्क्वेरिन’ (Squaraine) की बहुत पतली फिल्म प्राप्त करके उसे तांबे से निर्मित पदार्थों पर कई परतों के रूप में लपेटा जाता है।

चूँकि ‘स्क्वेरिन’ (Squaraine) जल विरोधी और जल स्नेही दोनों विलायकों में घुल जाता है, अतः स्क्वेरिन का जल स्नेही छोर धातु की सतह की तरफ चिपका दिया जाता है तथा जल विरोधी छोर को हवा में छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार ‘स्क्वेरिन’ (Squaraine) के जल विरोधी अणु संक्षारण अणुओं से प्रतिक्रिया करके तांबे को क्षरण होने से बचाए रखते हैं।

  • टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR),मुंबई के शोधकर्त्ताओं ने 'ब्लैक गोल्ड' (Black Gold) नामक एक नया पदार्थ बनाया है,जिसमें प्रकाश और कार्बन डाइऑक्साइड के अवशोषण जैसे अद्वितीय गुण मौजूद हैं। इसे सोने के सूक्ष्म कणों (Nanoparticles) के अंतराल और आकार को पुन: व्यवस्थित करके विकसित किया गया है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह काले रंग का है और सौर ऊर्जा के दोहन से लेकर समुद्री जल के विलवणीकरण तक इसके कई अनुप्रयोग हैं।
  • प्रसिद्ध सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी आतिश दाभोलकर को ट्राइस्टे, इटली में अब्दुस सलाम इंटरनेशनल सेंटर फॉर थियोरेटिकल फिजिक्स(ICTP) के नए निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया है।

दाभोलकर संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (UNESCO) के सहायक महानिदेशक के पद के साथ इंटरनेशनल सेंटर फॉर थियोरेटिकल फिजिक्स (ICTP) के निदेशक का पदभार संभालेंगे। ये फर्नांडो क्यूवेदो की जगह लेंगे जिन्होंने वर्ष 2009 में इस केंद्र का नेतृत्व सँभाला था। दाभोलकर वर्तमान में ICTP की उच्च ऊर्जा, ब्रह्मांड विज्ञान और खगोल भौतिकी अनुभाग के प्रमुख हैं। शैक्षिक पृष्ठभूमि श्री दाभोलकर का जन्म वर्ष 1963 में कोल्हापुर ज़िले के गरगोती में हुआ और यहीं पर इन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की। इन्होंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। प्रिंसटन विश्वविद्यालय से सैद्धांतिक भौतिकी में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की, इसके बाद रटगर्स विश्वविद्यालय,हार्वर्ड विश्वविद्यालय और कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में पोस्ट-डॉक्टरेट किया तथा विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान कार्य किया। वर्ष 2010 तक वह मुंबई में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में सैद्धांतिक भौतिकी के प्रोफेसर थे तथा स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एवं सर्न में एक विज़िटिंग वैज्ञानिक रहे।

  • बिना बिजली के विलवणीकरण की प्रक्रियाकी खोज टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के शोधकर्त्ताओं ने की।

अन्य पारंपरिक तरीकों के इतर शोधकर्त्ताओं ने इसके लिये सोने के नैनोकणों का प्रयोग किया, जिन्हें समुद्री जल को पीने योग्य पानी में परिवर्तित करने के लिये किसी बाहरी ऊर्जा की आवश्यकता नहीं होती है।

सोने के नैनोकणों का प्रयोग कार्बन डाइऑक्साइड को मीथेन में बदलने के लिये भी किया जा सकता है।

हालाँकि यह केवल प्रारंभिक अध्ययन ही है। शोधकर्त्ताओं के समक्ष अगली सबसे बड़ी चुनौती सोने को किसी सस्ती धातु के साथ प्रतिस्थापित करना है ताकि इस प्रक्रिया को मितव्ययी बनाया जा सके।

  • 11 मई, 2019 को भारत में राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस (National Technology Day)विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा मनाया गया।इस दिवस को तकनीकी रचनात्मकता,वैज्ञानिक परीक्षण,उद्योग और विज्ञान के एकीकरण में किये गए प्रयासों का प्रतीक माना जाता है।इसके अवसर पर भारत के राष्ट्रपति राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी पुरस्कार भी प्रदान किये जाते हैं। यह पुरस्कार ऐसे लोगों को दिया जाता है जिन्होंने इस क्षेत्र में अभूतपूर्व काम किया हो।

राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस की शुरुआत वर्ष 1998 में हुए पोखरण परमाणु बम परीक्षण से हुई थी। भारत ने 11 मई, 1998 को अपना दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया था।

  • सेलेनियम-ग्रैफीन आधारित उत्प्रेरक का विकास भारत की एक बहु-संस्थागत टीम ने किया है। यह उत्प्रेरक प्लैटिनम (Platinum) आधारित उत्प्रेरक की तुलना में उच्च कोटि का है तथा अत्यधिक प्रभावी है एवं इसकी लागत भी कम है।

शोध में शामिल संस्थान निम्नलिखित हैं-

  1. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, हैदराबाद (Tata Institute of Fundamental Research, Hyderabad-TIFR-H);
  2. हैदराबाद विश्वविद्यालय (University of Hyderabad); और
  3. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (Indian Institute of Science Education and Research-IISER), तिरुवनंतपुरम
  • IIT मद्रास के शोधकर्त्ताओं ने द्विविमीय फिल्म पर गोल्ड के नैनोकणों की ड्राप-कास्टिंग करके टंगस्टन डाईसेलेनाइड (Tungsten Diselenide- WSe2) के ऑप्टो-इलेक्ट्रॉनिक गुणों (ऑप्टिक्स और इलेक्ट्रॉनिक्स का संयोजन) में लगभग 30 गुना तक वृद्धि करने के उपाय की खोज की है।एप्लाइड फिजिक्स लेटर्स नामक विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित इस शोध का सबसे चुनौतीपूर्ण पहलू कमरे के तापमान पर 100 केल्विन तक इन पदार्थों का नियंत्रित फोटोलुमिनेसेंस (Photoluminescence) माप करना था।
ड्रॉप कास्टिंग:-एक सरल प्रक्रिया में एक अधःस्तर (substrate) पर किसी विलयन को बूंद-बूंद करके गिराया जाता है।
टंगस्टन डाईसेलेनाइड (WSe2) और मोलिब्डेनम डाईसेलेनाइड (MoSe2) जैसे पदार्थों का उनके ऑप्टो-इलेक्ट्रॉनिक गुणों के विश्लेषण के लिये गहन अध्ययन जारि।
इन पदार्थों का एक प्रमुख गुण प्रकाश संदीप्ति/फोटोलुमिनेसेंस (Photoluminescence-PL) है,जिसमें पदार्थ प्रकाश को अवशोषित करता है और इसे स्पेक्ट्रम के रूप में फिर से उत्सर्जित करता है।
फोटोलुमिनेसेंस गुणों का उपयोग विभिन्न उपकरणों जैसे कि क्वांटम LED तथा उपयोग संचार और अभिकलन (Computation) में किया जा सकता है।
अर्द्धचालकों में इलेक्ट्रॉन ऊर्जा बैंड के रूप में जुड़े रहते हैं जिसे संयोजकता बैंड (Valance Band) कहा जाता है और ये इलेक्ट्रॉन के चालन में योगदान करते हैं। परंतु, जैसे ही इनमें बाहर से कुछ ऊर्जा संचालित/अपवाहित की जाती है जिसे चालन बैंड (Conduction Band) कहा जाता है,तो ये अर्द्धचालक अस्थाई हो सकते हैं और चारों तरफ से चालन में योगदान कर सकते हैं।

एक्साइटॉन (Exciton)

जब एक इलेक्ट्रॉन चालन/संवहन बैंड के तहत संयोजकता से निकलता है, तो यह पीछे एक प्रतिछाया छोड़ जाता है जिसे ‘होल’ (Hole) कहते हैं। चालन बैंड के इलेक्ट्रॉन और संयोजकता बैंड के होल एक साथ मिलकर एक बैंड बना सकते हैं, जिससे एक संघटित वस्तु (Composite Object) या छद्मकण (Pseudoparticle) का निर्माण होता है जिसे एक्साइटॉन के रूप में जाना जाता है। टंगस्टन सेलेनाइड में फोटोलुमिनेसेंस ऐसे ही एक्साइटॉन्स का एक परिणाम है।
एक्साइटॉन का निर्माण दो तरीकों से हो सकता है। पहला जब किसी घटक में इलेक्ट्रॉन और होल का चक्रण (Spin) एक-दूसरे के विपरीत दिशा में हो और दूसरा जब वे एक ही दिशा में संरेखित हों। पहली स्थिति में बनने वाले एक्साइटॉन ब्राइट एक्साइटॉन (Bright Exciton) और दूसरी स्थिति में बनने वाले एक्साइटॉन को डार्क एक्साइटॉन (Dark Exciton) कहा जाता है।
चूँकि ब्राइट एक्साइटॉन बनाने वाले इलेक्ट्रॉन और होल एक दूसरे-की विपरीत दिशा में चक्रण करते हैं, अतः ये पुनः संयोजित होकर काफी मात्रा में प्रकाश उत्सर्जित करते हैं। लेकिन पुनर्संयोजन का यह तरीका डार्क एक्साइटॉन के लिये उपलब्ध नहीं है।
चूँकि इलेक्ट्रॉन और होल के चक्रण एक-दूसरे समानांतर होते हैं, उनके पुनर्संयोजन को कोणीय संवेग संरक्षण के नियम से हतोत्साहित किया जाता है इसलिये डार्क एक्साइटॉन,ब्राइट एक्साइटॉन की तुलना में लंबे समय तक बने रहते हैं।
डार्क एक्साइटॉन को पुनर्संयोजन में मदद करने के लिये बाह्य प्रभाव की आवश्यकता होती है। IIT मद्रास के शोधकर्त्ताओं ने इन्ही बाह्य प्रभावों का पता लगाने का प्रयास किया है।

गोल्ड की क्षमता

  1. शोधकर्त्ताओं के अनुसार जब गोल्ड के नैनोकणों को एकल स्तरीय टंगस्टन डाईसेलेनाइड की सतह पर ड्राप कास्ट किया जाता है तो सतह पर पर डार्क एक्साइटॉन्स के युग्म की उत्पत्ति होती है जो प्रकाश उत्सर्जित करने के लिये पुनर्संयोजित होते हैं। इस प्रकार गोल्ड के नैनोकणों की मदद से डार्क एक्साइटॉन्स,ब्राइट एक्साइटॉन्स में बदल जाते हैं।
  2. गोल्ड के नैनोकणों के कारण उत्पन्न प्लास्मोनिक प्रभाव (Plasmonic effect) एक प्रसिद्ध अवधारणा है। लेकिन, द्विविमीय प्रणाली के लिये इसका उपयोग अभी नया है।
  3. वैज्ञानिकों के अनुसार यदि एकल स्तरीय (Monolayer) टंगस्टन डाईसेलेनाइड पर गोल्ड के नैनोकणों को ड्राप-कास्ट किया जाएगा तो यह प्लास्मोनिक प्रभाव के कारण समतलीय विदुतीय क्षेत्र उत्पन्न करेगा जो चालन बैंड के इलेक्ट्रॉनों के चक्रण को उसी स्थिति में बनाए रखने में मदद कर सकता है, इससे डार्क एक्साइटॉन, ब्राइट एक्साइटॉन में परिवर्तित हो जाते हैं।
  • भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के पूर्व चेयरमैन ए. एस. किरण कुमार को फ्राँस ने अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'शेवेलियर डी एल ऑर्डर नेशनल डी ला लीजेंड ऑनर'(1802 में नेपोलियन बोनापार्ट द्वारा प्रारंभ) से सम्मानित किया है।किरण कुमार को यह सम्मान भारत-फ्राँस अंतरिक्ष सहयोग के विकास में उनके द्वारा निभाई गई भूमिका के लिये दिया गया है।

ए. एस. किरण कुमार भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक हैं। वे वर्ष 2015 से वर्ष 2018 तक इसरो के चेयरमैन रहे और इससे पूर्व वे अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र, अहमदाबाद के निदेशक थे।

  • वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद(CSIR) द्वारा एक परियोजना के अंतर्गत छात्रों के जीनोम का अनुक्रमण किया जाएगा।

इसका उद्देश्य जीनोमिक्स की ‘उपयोगिता’ (‘Usefulness’ of Genomics) के बारे में छात्रों की अगली पीढ़ी को शिक्षित करना है। इसके तहत देश के लगभग 1,000 ग्रामीण युवाओं का जीनोम सैम्पल एकत्र करके इंडीजिनस जेनेटिक मैपिंग (Indigenous Genetic Mapping) द्वारा इनके जीनोम का अनुक्रमण किया जाएगा। सरकार के नेतृत्व में एक परियोजना चलाई जा रही है जिसमें कम-से-कम 10,000 भारतीय जीनोम को अनुक्रमित किया जाना है, यह परियोजना इसमें सहायक होगी। वैश्विक स्तर पर कई देशों ने रोगों की पहचान एवं उपचार के लिये अद्वितीय आनुवंशिक लक्षणों तथा संवेदनशीलता आदि का निर्धारण करने हेतु अपने देश के नागरिकों के सैम्पल का जीनोम अनुक्रमण किया है। जीनोम को रक्त के नमूने के आधार पर अनुक्रमित किया जाएगा जिसके अंतर्गत अधिकांश राज्यों को कवर करने के लिये कम-से-कम 30 शिविर आयोजित किये जाएँगे। सभी व्यक्तियों,जिनका जीनोम अनुक्रम किया जाता है, को एक रिपोर्ट दी जाएगी। साथ ही उन्हें उनके जीन की संवेदनशीलता की जानकारी प्रदान की जाएगी। सामान्यतः कई मामलों में विभिन्न विकारों का कारण एकल-जीन होते हैं।

  • जीनोम(Genome)-आणविक जीव विज्ञान और आनुवंशिकी के अनुसार जीन जीवों का आनुवंशिक पदार्थ है, जिसके माध्यम से जीवों के गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुँचते हैं।

किसी भी जीव के डीएनए में विद्यमान समस्त जीनों का अनुक्रम जीनोम (Genome) कहलाता है।मानव जीनोम में अनुमानतः 80,000-1,00,000 तक जीन होते हैं। जीनोम के अध्ययन को जीनोमिक्स कहा जाता है। जीनोम अनुक्रमण के तहत डीएनए अणु के भीतर न्यूक्लियोटाइड के सटीक क्रम का पता लगाया जाता है। इसके अंतर्गत डीएनए में मौज़ूद चारों तत्त्वों- एडानीन (A), गुआनीन (G), साइटोसीन (C) और थायामीन (T) के क्रम का पता लगाया जाता है। डीएनए अनुक्रमण विधि से लोगों की बीमारियों का पता लगाकर उनका समय पर इलाज करना साथ ही आने वाली पीढ़ी को रोगमुक्त करना संभव है। लक्ष्य

  1. ग्रामीण क्षेत्रों में CT स्कैन की भाँति जीनोम के अनुक्रमण के बारे में ज़्यादा-से-ज़्यादा जागरूक करना,क्योंकि भारत में यह प्रक्रिया काफी हद तक एक समृद्ध शहरी जनसांख्यिकी तक ही सीमित है।
  2. इससे लोगों की बीमारियों का समय से इलाज सुनिश्चित किया जा सकेगा।
  3. लोगों के स्वास्थ्य में होने वाले परिवर्तनों को लंबे समय तक ट्रैक किया जा सकेगा।

निष्कर्ष

  • यह परियोजना पूरे जीनोम अनुक्रमण को निष्पादित करने में भारत की क्षमताओं को प्रदर्शित करेगी।
  • जब से मानव जीनोम को (पहली बार 2003 में) अनुक्रमित किया गया है, इसने रोगों और प्रत्येक व्यक्ति के अद्वितीय आनुवंशिक बनावट के बीच संबंध पर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।
  • लगभग 10,000 बीमारियाँ जैसे- सिस्टिक फाइब्रोसिस, थैलेसीमिया आदि को एकल जीन की खराबी का परिणाम माना जाता है, जबकि ये जीन कुछ दवाओं के प्रति असंवेदनशील हो सकते हैं।
  • जीनोम अनुक्रमण से कैंसर जैसी बीमारी को भी आनुवांशिकी के दृष्टिकोण से समझा जा सकता है।
  • तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय ने बैंगन की उपज को बढ़ावा देने के लिये ग्राफ्टिंग तकनीक (Grafting Technology) का विकास किया है। यह पौधों में पोषक तत्त्वों को बढ़ाती है,साथ ही मृदा जनित रोगों के प्रतिरोधक विकसित करके पौधों की वृद्धि करती है।

सामान्यतः पौधे उथले जड़ वाले होते हैं लेकिन ग्राफ्टिंग विधि में इनकी जड़ें गहरी होती हैं। इसके लिये ज़्यादा पानी की आवश्यकता नहीं होती है।बैंगन का पौधा कीटों और रोगों के लिये अतिसंवेदनशील होता है। इसलिये इस विधि को अपनाया गया है।

ग्राफ्टिंग तकनीक वह विधि है जिसमें दो अलग-अलग पौधों के कटे हुए तनों को लेते हैं इसमें एक जड़ सहित और दूसरा बिना जड़ वाला होता है। दोनों को इस तरह से एक साथ लाया जाता है कि दोनों तने संयुक्त हो जाते हैं और एक ही पौधे के रूप में विकसित होते हैं। इस नए पौधे में दोनों पौधों की विशेषताएँ होती हैं।
जड़ वाले पौधे के कटे हुए तने को स्टॉक (Stock) और दूसरे जड़ रहित पौधे के कटे हुए तने को सायन (Scion) कहा जाता है।

यह पोषक तत्त्वों को बढ़ाकर तथा उपयुक्त रूट स्टॉक्स के साथ मिट्टी जनित रोगों के प्रतिरोधक विकसित करके पौधों की वृद्धि करता है। ग्राफ्टिंग का उपयोग विभिन्न प्रकार के पौधों जैसे- गुलाब, सेब, एवोकैडो आदि में किया जाता है।

  • BSNL को हवा और पानी में भी इंटरनेट सेवा देने का लाइसेंस मिल गया है। BSNL अपने विदेशी सहयोगी इनमारसैट के ज़रिये लोगों को यह सुविधा उपलब्ध कराएगी। BSNL के इंटरनेट का प्रयोग वे सभी एयरलाइंस कर सकेंगी, जो भारत में परिचालन करती हैं या फिर भारतीय हवाई सीमा से उड़ते हुए विदेश जाती हैं। इन्हें BSNL की Ku बैंड, स्विफ्ट ब्रॉडबैंड और फ्लीट ब्रॉडबैंड सेवा लेनी होगी। यह सुविधा भारतीय समुद्री सीमा में परिचालन कर रहे पानी के जहाज़ों को भी मिलेगी।
  • DRDO के निदेशक डॉ. ए.के. सिंह को चंडीगढ़ विश्वविद्यालय, मोहाली में आयोजित चौथी एपीजे अब्दुल कलाम इनोवेशन कॉन्क्लेव के दौरान DRDO ने लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड 2019 से सम्मानित किया। डॉ. ए.के. सिंह ने विखंडन उत्पादित रेडियोन्यूक्लाइड्स और संक्रमण इमेजिंग के आंतरिक विनिगम में उल्लेखनीय कार्य किया है। संक्रामक घाव का पता लगाने के लिये उन्होंने एक डायग्नोबैक्ट किट भी बनाई और फार्माकोसाइन्टीग्राफी भी पेश की। उनको यह पुरस्कार Life Sciences, Aerospace तथा Aeronautics में योगदान देने के लिये दिया गया है।
  • रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन द्वारा विकसित बायो-डाइजेस्टर प्रौद्योगिकी में बायो-डाइजेस्टर टैंक के साथ संलग्न एक जैव-शौचालय होता है जो मानव मल को बायोगैस और पुन: उपयोग किये जा सकने वाले जल में परिवर्तित करता है।[]
  • नवरत्न कंपनी, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड ने एक नए उत्पाद,एटमोस्फेरिक वॉटर जनरेटर (Atmospheric Water Generator-AWG) का अनावरण एयरो इंडिया 2019 कार्यक्रम में किया गया।वॉटर जनरेटर वायुमंडल में मौजूद नमी से जल निकालने और इसे शुद्ध करने के लिये नवीन प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करता है। []

इसका निर्माण भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड द्वारा CSIR-IICT और MAITHRI (हैदराबाद स्थित एक स्टार्ट-अप कंपनी) के सहयोग से किया जा रहा है।

  • नवाचार और उद्यमिता उत्सव-2019 (Festival of Innovation and Entrepreneurship-FINE)

राष्ट्रपति कार्यालय की एक अनूठी पहल है जिसका उद्देश्य ज़मीनी स्तर के नवाचारों को मान्यता देना,उन्हें सम्मानित तथा पुरस्कृत करना और सहायक पारिस्थितिकी तंत्र को बढ़ावा देना है। यह रचनात्मकता, नवाचार और उद्यमशीलता का महोत्सव है जिसकी शुरुआत 2015 में की गई थी। इसे पहले नवाचार उत्सव (Festival of Innovation-FOIN) के रूप में जाना जाता था। 2018 तक यह उत्सव राष्ट्रपति भवन में आयोजित किया जाता था। किंतु इस वर्ष इसे गुजरात के गांधीनगर में आयोजित करने का निर्णय लिया गया। इसका आयोजन नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन (NIF) तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार द्वारा किया गया है। आयोजन के दौरान 10वें द्विवार्षिक नेशनल ग्रासरूट इनोवेशन पुरस्‍कार का भी वितरण किया गया।

नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन (NIF)

भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की सहायता से वर्ष 2000 में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन (NIF) की स्थापना की गई थी। नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन ने देश में ज़मीनी स्तर पर तकनीकी नवाचारों और उत्कृष्ट पारंपरिक ज्ञान को मज़बूत करने में योगदान दिया है। NIF ने देश भर से विचारों, नवाचारों और पारंपरिक ज्ञान का एक विशाल डेटाबेस तैयार किया है।

आंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत का योगदान

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  • इसरो मीथेन संचालित रॉकेट इंजन विकसित करने की योजना बना रहा है। इसरो दो एलओएक्स मीथेन (LOX Methane- Liquid Oxygen Oxidizer And Methane Fuel) इंजन आधारित परियोजनाओं को विकसित करने का प्रयास कर रहा है। इनमें से एक परियोजना मौजूदा क्रायोजेनिक इंजन स्थानांतरित करने से संबंधित है। इसके तहत LOX मीथेन इंजन का प्रयोग किया जायेगा, जिसमें ईंधन के रूप में तरल हाइड्रोजन का उपयोग किया जाता है।

दूसरी परियोजना में 3 टन वज़न वाले छोटे इंजन का प्रयोग किया जायेगा, जो इलेक्ट्रिक मोटर युक्त होगा।

मीथेन आधारित ईंधन:-मीथेन को अंतरिक्ष में पानी और कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) के साथ संश्लेषित किया जा सकता है। इसे ‘भविष्य के ईंधन’ की संज्ञा भी दी जाती है। यह तकनीक वर्तमान क्रायोजेनिक इंजन को स्थानांतरित करने में सक्षम है।

हाइपरगोलिक प्रणोदक (Hypergolic Propellant):-ये ऑक्सीजन के संपर्क में आने पर स्वयं जलने लगते हैं और इन्हें किसी प्रज्जवलन स्रोत की आवश्यकता नहीं होती है। तरल ऑक्सीजन (Liquid Oxygen- LOx): यह संक्षिप्त रूप से मौलिक ऑक्सीजन का तरल रूप है। इसका प्रयोग वर्तमान में तरल-ईंधन वाले रॉकेट में ऑक्सीडाइज़र के रूप में किया जाता है।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

मीथेन-संचालित रॉकेट इंजन

लाभ:-

हाइड्राजीन आधारित ईंधन अत्यधिक विषाक्त एवं कैंसर जैसे रोगों के कारक होते हैं। इसके विपरीत मीथेन गैर-विषैला होता है, साथ ही इसमें उच्च विशिष्ट आवेग होता है। ये कम भारी होते हैं, अतः इन्हें स्टोर करना आसान होता है। हाइड्राजीन आधारित ईंधनों के विपरीत ये जलने पर अवशेष नहीं छोड़ते हैं। इसकी महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसे अंतरिक्ष में संश्लेषित किया जा सकता है। बेहतर ईंधनों का प्रयोग अंतरिक्ष में अनुसंधान को बढ़ावा देगा। यह उपग्रहों (Satellite) को कम खर्चीला बनाएगा।

  • इसरो (1969 में स्थापित) ने तमिलनाडु के कुलसेकरपट्टिनम के पास थूथुकुडी (Thoothukudi) में अपने दूसरे अंतरिक्ष केंद्र के लिये भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू कर दी है। अंतरिक्ष के क्षेत्र में प्रगति करने वाले प्रमुख देशों में कई अंतरिक्ष केंद्र हैं। ISRO का पहला और एकमात्र सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र (Satish Dhawan Space Centre- SDSC) आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा में स्थित है। इसकी स्थापना वर्ष 1971 में हुई थी तथा वर्तमान में यहाँ दो सक्रिय लॉन्चपैड हैं।

ISRO यहाँ से अपने ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (Polar Satellite Launch Vehicle- PSLV) और जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल Geosynchronous Satellite Launch Vehicle- GSLV) रॉकेट लॉन्च करता है। भारत को नए अंतरिक्ष केंद्र की आवश्यकता क्यों? नये अंतरिक्ष केंद्र ISRO के आगामी लघु उपग्रह प्रक्षेपण यान (Small Satellite Launch Vehicle- SSLV) के लॉन्च के लिये महत्त्वपूर्ण होगा। PSLV को उपग्रहों को ध्रुवीय तथा पृथ्वी की कक्षाओं में लॉन्च करने के लिये डिज़ाइन किया गया है। हालाँकि लॉन्च के बाद यह सीधे ध्रुवीय या पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि रॉकेट के किसी टुकड़े या अवशेष के गिरने की आशंका के कारण इसके प्रक्षेपवक्र (Trajectory) को श्रीलंका के ऊपर उड़ान से बचना होता है। इसलिये एक बार श्रीहरिकोटा से रॉकेट के उड़ान भरने के बाद इसे श्रीलंका से बचाने के लिये पहले यह पूर्व की ओर उड़ान भरता है फिर वापस दक्षिण ध्रुव की ओर बढ़ता है। इस प्रक्रिया में अधिक ईंधन की आवश्यकता होती है। थूथुकुडी में नए अंतरिक्ष केंद्र की स्थापना के बाद SSLV लक्षद्वीप के ऊपर से उड़ान भरेगा और अधिक ऊँचाई पर जाने के साथ श्रीलंका के चारों ओर घूमकर जाएगा। अंतरिक्ष केंद्र के रुप में थूथुकुडी का चुनाव ही क्यों?

  1. समुद्र तट का सामीप्य (Proximity to Seashore):-थूथुकुडी की समुद्र के साथ निकटता रॉकेट को "सीधे दक्षिण की ओर" लॉन्च करने के लिये आदर्श स्थान बनाती है।

श्रीहरिकोटा से इस तरह के दक्षिण दिशा की ओर लॉन्च संभव नहीं हैं क्योंकि रॉकेटों को श्रीलंका के चारों ओर से उड़ान भरनी होती है। रॉकेट थूथुकुडी से एक सीधे प्रक्षेपवक्र के अनुसार प्रक्षेपित होने में सक्षम होंगे जो उनके भारी पेलोड ले जाने में सहायक होगा।

  1. भूमध्य रेखा से निकटता (Proximity to Equator):-थूथुकुडी को SDSC की तरह ही भूमध्य रेखा के निकट होने के कारण एक अंतरिक्ष केंद्र के रूप में चुना गया है।

क्योंकि रॉकेट लॉन्च केंद्र पूर्वी तट पर और भूमध्य रेखा के पास होना चाहिये।

  1. ढुलाई/संचालन में आसानी (Logistical Ease):-ISRO का तिरुनेलवेली ज़िले के महेंद्रगिरि में अपना तरल प्रणोदन प्रणाली केंद्र (Liquid Propulsion Systems Centre- LPSC) है जहाँ PSLV के लिये दूसरे और चौथे चरण के इंजन को असेंबल किया जाता है।

दूसरे और चौथे चरण के इंजन को महेंद्रगिरि से श्रीहरिकोटा ले जाने के बजाय, अगर इन्हें कुलसेकरपट्टिनम में बनाया जाएगा तो उन्हें लॉन्च पैड पर स्थानांतरित करना आसान होगा। जो लगभग थूथुकुडी से 100 किमी० की दूरी पर है।

  • 11 दिसंबर, 2019 को इसरो ने PSLV-C48 रॉकेट की मदद से रीसैट-2BR1 (RISAT-2BR1) नामक सैटेलाइट को सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्रीहरिकोटा से सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया। यह PSLV रॉकेट द्वारा किया गया 50वाँ प्रक्षेपण था। इस मौके पर इसरो द्वारा “PSLV@50” नामक पुस्तक का विमोचन किया गया। RISAT-2BR1 के अलावा 9 अन्य वाणिज्यिक सैटेलाइटों को भी निर्धारित कक्षाओं में प्रक्षेपित किया गया जो कि इज़राइल, जापान, अमेरिका तथा इटली के थे।

इन सैटेलाइटों को इसरो के वाणिज्यिक निकाय (Commercial Body) न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड (NewSpace India Limited-NSIL) के अधीन प्रबंधित किया गया था।

RISAT-2BR1 एक राडार इमेजिंग सैटेलाइट है तथा इसका वजन 628 किलोग्राम है। इसका प्रयोग कृषि, वानिकी, आपदा प्रबंधन तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये किया जाएगा। इसकी अवधि पाँच वर्ष है।

PSLV भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के तीसरी पीढ़ी का प्रक्षेपण यान है। PSLV में ईंधन चार चरणों में होता है तथा यह भारत का पहला प्रक्षेपण यान है जिसमें तरल रॉकेट ईंधन का प्रयोग किया जाता है। अभी तक के कुल प्रक्षेपणों में PSLV केवल 2 बार ही असफल रहा है। पहली बार सितंबर 1993 में अपनी पहली ही उड़ान PSLV D1 के दौरान और दूसरी बार अगस्त 2017 में PSLV C-39 की उड़ान के दौरान। प्रारंभिक उड़ानों में PSLV की क्षमता मात्र 850 किलोग्राम थी, जबकि वर्तमान में इसकी क्षमता 1.9 टन तक बढ़ गई है।

  • इसरो (ISRO) ने PSLV-C47 रॉकेट की सहायता से कार्टोसेट-3 उपग्रह को आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया है।

इस उपग्रह को पृथ्वी के ऊपर 509 किलोमीटर की ऊँचाई पर सूर्य तुल्यकालिक कक्षा (Sun Synchronous Orbit) में स्थापित किया गया। इस उपग्रह का भार 1625 किलोग्राम है जो कि इस वर्ग के पिछ्ले सभी उपग्रहों के भार से दोगुना है। कार्टोसेट-3 कार्टोसेट शृंखला का नौवां उपग्रह है। इस शृंखला का पहला उपग्रह वर्ष 2005 में प्रक्षेपित किया गया था। PSLV-C47 से अलग होने के बाद कार्टोसेट-3 बंगलूरू स्थित इसरो के टेलीमेट्री ट्रैकिंग एंड कमांड नेटवर्क (Telemetry Tracking and Command Network) के नियंत्रण में है। इस प्रक्षेपण में कार्टोसेट-3 के अलावा अमेरिका के 13 वाणिज्यिक नैनोसैटेलाइट भी शामिल थे। कार्टोसेट-3 के प्रत्येक कैमरे में 25 सेंटीमीटर के ग्राउंड रेज़ोल्यूशन की क्षमता होगी। इसका तात्पर्य है कि यह पृथ्वी पर उपस्थित किसी वस्तु के न्यूनतम हिस्से को भी 500 किलोमीटर की ऊँचाई से स्पष्ट देख सकता है। वर्तमान में अमेरिकी कंपनी मैक्सर (Maxar) के उपग्रह वर्ल्डव्यू-3 (WorldView-3) की ग्राउंड रेज़ोल्यूशन क्षमता सर्वाधिक 31 सेंटीमीटर है। इस उपग्रह में कई नई तकनीकों का प्रयोग किया गया है जिसमें उच्च क्षमता के घुमावदार कैमरे, हाई स्पीड डेटा ट्रांसमिशन तथा एडवांस कंप्यूटिंग सिस्टम आदि शामिल हैं। कार्टोसेट-3 की उपयोगिता: यह उपग्रह रिमोट सेंसिंग के मामले में विश्व में सर्वश्रेष्ठ होगा, इसलिये इसे शार्पेस्ट आई (Sharpest Eye) कहा जा रहा है। इसके अलावा इसे कार्टोग्राफी या अन्य मानचित्रण संबंधी कार्यों के लिये प्रयोग में लाया जाएगा जिससे यह भौगोलिक संरचनाओं में प्राकृतिक तथा मानवजनित कारणों से होने वाले बदलावों की जानकारी देगा। इन उपग्रहों से प्राप्त हाई रेज़ोल्यूशन फोटोग्राफ्स की आवश्यकता विविध अनुप्रयोगों में उपयोगी हैं, जिनमें कार्टोग्राफी, अवसंरचना योजना निर्माण, शहरी एवं ग्रामीण विकास, उपयोगिता प्रबंधन, प्राकृतिक संसाधन इवेंट्री एवं प्रबंधन, आपदा प्रबंधन शामिल हैं। कार्टोसेट श्रेणी के उपग्रहों से प्राप्त डेटा का प्रयोग सशस्त्र बलों द्वारा किया जाता है। अतः कार्टोसेट-3 द्वारा प्राप्त डेटा देश के सुदूर सीमावर्ती इलाकों में निगरानी एवं रक्षा के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण होगा।

  • नैनीताल में अवस्थित ARIES (Aryabhatta Research Institute of Observational Sciences) के वैज्ञानिकों ने शक्तिशाली 3.6 मीटर के ऑप्टिकल टेलीस्कोप ‘देवस्थल ऑप्टिकल टेलीस्कोप’ (DOT) का उपयोग कर ‘मिल्की वे’ गैलेक्सी के बाहरी हिस्से में 28 नए परिवर्ती तारों (Variable Stars) की खोज की। ये तारे कोमा बेरेमसेस (Coma Beremces) नक्षत्र मंडल में ग्लोबुलर क्लस्टर NGC 4147 में पाए गए।
  • अनुसंधानकर्त्ताओं ने ‘JO201’ नामक जेलीफिश आकाशगंगा की रचना विज्ञान का अध्ययन किया और पाया कि इसमें एक चमकीली टूटे हुए वलय जैसी उत्सर्जन संरचना से घिरा हुआ एक केंद्रीय चमकदार क्षेत्र होता है।

भारत की अंतरिक्ष वेधशाला एस्ट्रोसैट पर लगे पराबैंगनी इमेजिंग टेलीस्कोप की सहायता से जेलीफिश आकाशगंगा के केंद्र में हो रही घटनाओं की जानकारी मिलीं है।जेलीफिश आकाशगंगा समूहों में पाई जाने वाली एक प्रकार की आकाशगंगा है।

  • नई मिसाइल परीक्षण सुविधा के लिये पर्यावरण,वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा पर्यावरण और तटीय नियामक क्षेत्र को मंज़ूरी प्रदान की गई है। आंध्र प्रदेश में बंगाल की खाड़ी के तट पर मिसाइल परीक्षण प्रक्षेपण एवं तकनीकी सुविधा स्थापित की जाएगी।

इससे पहले DRDO ने आंध्र प्रदेश के कृष्णा ज़िले में कृष्णा वन्यजीव अभ्यारण्य में इस परियोजना को स्थापित करने का प्रस्ताव दिया था। मिसाइल परीक्षण एवं प्रक्षेपण की यह परियोजना रणनीतिक आवश्यकता के साथ-साथ राष्ट्रीय महत्त्व की भी है, इसे कहीं और स्थापित नहीं किया जा सकता है। अतः इसे पर्यावरण प्रभाव आकलन (Environmental impact assessment) अधिसूचना 2016 के अनुसार सार्वजनिक सुनवाई से छूट दी गई है।


  • टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के एक अध्ययन के अनुसार,‘तीव्र न्यूट्रिनो दोलन’ (Fast Neutrino Oscillations) की वज़ह से तारों में विस्फोट के पश्चात् सुपरनोवा का निर्माण होता है।

न्यूट्रिनो ऐसे उप-परमाण्विक (Subatomic) कण हैं जो एक इलेक्ट्रॉन के समान होते हैं,लेकिन इनमें कोई आवेश नहीं होता है। इनका द्रव्यमान बहुत कम या शून्य भी हो सकता है। न्यूट्रिनो ब्रह्मांड में सबसे प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले कणों में से एक हैं।

  • केंद्र सरकार ने जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (GSLV) के चौथे चरण को जारी रखने का फैसला किया है। इसके तहत 2021-24 की अवधि के दौरान GSLV की पाँच उड़ानें शामिल हैं। GSLV के इस चौथे चरण से जियो-इमेजिंग,नेवीगेशन,डेटा रिले कम्युनिकेशन और स्पेस साइंस के लिये दो टन वर्ग के उपग्रहों को लॉन्च करने की क्षमता को और मज़बूती मिलेगी। चरण-4 के ज़रिये महत्त्वपूर्ण उपग्रह नौवहन सेवाएँ प्रदान करने, भारतीय मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम और अगले मंगल अभियान के संबंध में डेटा रिले कम्युनिकेशन संबंधी उपग्रहों की आवश्यकताएँ पूरी करने में मदद मिलेगी। ज्ञातव्य है कि GSLV निरंतरता कार्यक्रम को 2003 में मंज़ूरी दी गई थी और इसके दो चरण पूरे किये जा चुके हैं तथा तीसरा चरण प्रगति पर है। 2020-21 की चौथी तिमाही में इसे पूरा कर लेने की आशा है।
  • श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से 1 अप्रैल की सुबह भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के प्रक्षेपण यान PSLV C-45 ने एमिसैट सैटेलाइट (EMISAT) लॉन्च किया। इसे सूर्य समकालिक ध्रुवीय कक्षा (Sun Synchronous Polar Orbit) में स्थापित किया गया तथा इसके साथ 28 विदेशी नैनो उपग्रहों को अलग-अलग कक्षाओं में सफलतापूर्वक स्थापित किया गया। अमेरिका के 24, लिथुआनिया के दो और स्पेन व स्विट्जरलैंड के एक-एक उपग्रह को तीन अलग-अलग कक्षाओं में स्थापित करने के लिये नई प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया गया। इलेक्ट्रॉनिक इंटेलिजेंस सैटेलाइट (एमिसैट) का प्रक्षेपण DRDO के लिये किया गया है, जिसका उद्देश्य देश की सीमाओं पर इलेक्ट्रॉनिक या अन्य किसी तरह की मानवीय गतिविधियों पर नज़र रखना। साथ ही यह सीमाओं पर तैनात दुश्मनों के राडार और सेंसर पर भी निगाह रखेगा।[]
  • हाल ही में भारत ने 7-8 किमी की मारक क्षमता वाले एंटी-टैंक गाइडेड मिसाइल ‘नाग’ के हेलीकॉप्टर के ज़रिये लॉन्च किये जा सकने वाले संस्करण ‘हेलिना’ का परीक्षण किया।

इस मिसाइल का विकास रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन(DRDO) द्वारा किया गया है।

  • केंद्र सरकार द्वारा नई पीढ़ी की छह पारंपरिक स्टील्थ पनडुब्बियों के निर्माण की लंबित परियोजना को ‘रणनीतिक साझेदारी’ (Strategic Partnership-SP) मॉडल के तहत पूरा किये जाने का औपचारिक निर्णय लिया गया है।

‘P-75I परियोजना के तहत 111’ (Twin-Engine Naval Light Utility Choppers) हेलिकॉप्टरों के निर्माण के लिये 21,000 करोड़ रुपये की परियोजना को मंज़ूरी दी गई है जो SP मॉडल की दूसरी परियोजना है। ‘प्रोजेक्ट -75 इंडिया (P -75I)’ नामक पनडुब्बी परियोजना को पहली बार नवंबर 2007 में रक्षा मंत्रालय द्वारा अनुमोदित किया गया था, लेकिन सामान्य राजनीतिक-नौकरशाही उदासीनता संबंधी अवरोधों के कारण इस पर कार्य नही किया जा सका।

  • स्पेस किड्ज इंडिया द्वारा निर्मित विद्यार्थी उपग्रह कलामसैट जिसका वजन मात्र 1.26 किग्रा.है। इसरो ने एक विद्यार्थी उपग्रह कलामसैट लॉन्च किया है, जिसका वज़न केवल 1.26 किग्रा. है। यह दुनिया का सबसे छोटा और सबसे हल्का संचार उपग्रह है। शिक्षा के क्षेत्र में छात्रों के लिये नवोन्मेषी अवधारणाओं को डिज़ाइन करने के लिये समर्पित संगठन है।
  • UNNATI कार्यक्रम को इसरो के यू.आर.राव सैटेलाइट सेंटर (U.R. Rao Satellite Centre-URSC) द्वारा 3 सालों तक 3 बैचों में संचालित करने की योजना है और इसका लक्ष्य 45 देशों के 90 अधिकारियों को लाभ पहुँचाना है। यह नैनोसैटेलाइट विकास संबंधित एक क्षमता निर्माण कार्यक्रम है।

(ISRO) द्वारा यूनिस्पेस नैनो उपग्रह समुच्चयन एवं प्रशिक्षण (UNispace Nanosatellite Assembly & Training by ISRO-UNNATI) कार्यक्रम की शुरुआत की गई है। UNNATI नैनोसैटेलाइट विकास पर एक क्षमता निर्माण कार्यक्रम है। यह कार्यक्रम विकासशील देशों के प्रतिभागियों को नैनोसैटेलाइट्स के संयोजन,एकीकरण और परीक्षण में उनकी क्षमताओं को मज़बूत करने के अवसर प्रदान करता है। यह अन्वेषण और बाह्य अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग पर पहले संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की 50वीं वर्षगाँठ (UNISPACE+50) मनाने के लिये ISRO की एक पहल है।

  • भारतीय खगोलविदों की एक टीम ने G351.7-1.2 नामक सुपरनोवा विस्फोट के प्रमाण प्राप्त किये है। यह सुपरनोवा परमाणु हाइड्रोजन के एक उच्च वेग वाली धारा के रूप में प्राप्त हुआ है। अंतरिक्ष विज्ञान की दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इस प्रकार का विस्फोट कई शताब्दियों से खगोलविदों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। खगोलविदों के अनुसार जब एक सितारा अपना जीवन-चक्र समाप्त करके अपने जीवनकाल के अंतिम चरण में होता है तो वह एक भयंकर विस्फोट के साथ समाप्त हो जाता है जिसे सुपरनोवा कहते हैं।

खगोलविदों ने G351.7-1.2 क्षेत्र में बड़ी संख्या में गैस के बादल पाए तथा अधिक आवृति पर जाँच के बाद इसके सुपरनोवा होने की पुष्टि हुई। परमाणु हाइड्रोजन के एक उच्च वेग वाला यह सुपरनोवा स्कोर्पियस (Scorpius) तारामंडल की दिशा में है। परमाणु हाइड्रोजन के एक उच्च वेग वाली धारा 20 प्रकाश वर्षों की गति से विस्तारित हो रही है और 50 किमी. प्रति सेकंड की गति से यात्रा कर रही है। इस विस्फोट के परिणामस्वरूप किसी ब्लैक होल (black hole) या पल्सर (अत्यधिक चुम्बकीय न्यूट्रॉन तारा) का निर्माण हो सकता है, हालाँकि इससे संबंधित कोई भी प्रमाण खगोलविदों को अब तक नही मिला है। खगोलविदों के समूह ने इस सुपरनोवा का पता लगाने और G351.7-1.2 क्षेत्र की जाँच करने के लिये पुणे स्थित नेशनल सेंटर ऑफ़ रेडियो एस्ट्रोफिज़िक्स (National Centre of Radio Astrophysics) से संचालित होने वाले वृहत मीटरवेव रेडियो दूरबीन (Giant Metrewave Radio Telescope - GMRT) का प्रयोग किया था। सूर्य के 8-10 गुना अधिक द्रव्यमान वाले बड़े सितारे सुपरनोवा विस्फोट के रूप में समाप्त होते हैं। यह विस्फोट कुछ दिनों के लिये बहुत अधिक चमकीला प्रकाश छोड़ता है और फिर धीरे-धीरे यह प्रकाश समाप्त हो जाता है।

‘एंट्रिक्स कॉर्पोरेशन’ के बाद इसरो की दूसरी व्यावसायिक शाखा न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड (NSIL) का आधिकारिक रूप से बंगलूरु में उद्घाटन

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100 करोड़ रुपए के अधिकृत शेयर पूंजी (पेड-अप कैपिटल 10 करोड़ रुपए) के साथ 6 मार्च, 2019 को शामिल किया गया था। वर्ष 1992 एंट्रिक्स कॉर्पोरेशन को मुख्य रूप से इसरो के विदेशी उपग्रहों के वाणिज्यिक प्रक्षेपण की सुविधा हेतु स्थापित किया गया था। उद्देश्य:-

  1. भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रमों में उद्योग की भागीदारी को बढ़ाना
  2. अंतरिक्ष से संबंधित सभी गतिविधियों को एक साथ लाकर संबंधित प्रौद्योगिकियों में निजी उद्यमशीलता का विकास करना।

NSIL का उत्तरदायित्व-

  1. टेक्नोलॉजी ट्रांसफर मैकेनिज्म के माध्यम से स्मॉल सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल(SSLV) और पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल(PSLV) का निर्माण और उत्पादन।
  2. यह उभरती हुई वैश्विक वाणिज्यिक SSLV बाज़ार की मांग को भी पूरा करेगा, जिसमें उपग्रह निर्माण और उपग्रह-आधारित सेवाएँ प्रदान करना शामिल है।
  • न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड (New Space India Limited-NSIL) ने अपना पहला अनुबंध प्राप्त किया है। एक निजी अमेरिकी अंतरिक्ष सेवा प्रदाता ‘स्पेसफ्लाइट’ ने इसरो के लघु उपग्रह लॉन्च वाहन (SSLV) के साथ यह अनुबंध किया है।

लघु उपग्रह प्रमोचन वाहन(Small Satellite Launch Vehicle-SSLV) सबसे छोटा वाहन है जिसका वज़न केवल 110 टन है।

  1. PSLV या GSLV जैसे प्रमोचन/लॉन्च वाहनों के लिये आवश्यक 70 दिनों के विपरीत इसे एकीकृत (Integrate) करने में केवल 72 घंटे का समय लगेगा। इसकी लागत लगभग 30 करोड़ रुपए होगी। यह ऑन-डिमांड वाहन होगा।
  2. SSLV एक बार में कई सूक्ष्म उपग्रहों को लॉन्च करने में सक्षम है और यह मल्टीपल ऑर्बिटल ड्रॉप-ऑफ (Multiple Orbital Drop-Offs) को भी समर्थन देता है।
  3. SSLV 500 किलोग्राम तक के वज़न वाले उपग्रहों को पृथ्वी की निम्न कक्षा यानी Low Earth Orbit-LEO में ले जा सकता है, जबकि PSLV 1,000 किलोग्राम तक के वज़न वाले उपग्रहों को प्रक्षेपित कर सकता है।
पृथ्वी की सतह के 160 किमी. से 2000 किमी. की परिधि को लो अर्थ ऑर्बिट (Low Earth Orbit) कहते हैं। इस कक्षा में मौसम, निगरानी करने वाले उपग्रह और जासूसी उपग्रहों को स्थापित किया जाता है। पृथ्वी की सतह से सबसे नज़दीक होने की वज़ह से इस कक्षा में किसी उपग्रह को स्थापित करने के लिये कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इसमें अधिक शक्तिशाली संचार प्रणाली को भी स्थापित किया जा सकता है। ये उपग्रह जिस गति से अपनी कक्षा में घूमते हैं उनका व्यवहार भू-स्थिर (जिओ-स्टेशनरी) की तरह ही होता है।

लो अर्थ ऑर्बिट के बाद मीडियम अर्थ (इंटरमीडिएट सर्कुलर) ऑर्बिट और उसके बाद पृथ्वी की सतह से 35,786 किलोमीटर पर हाई अर्थ (जिओसिंक्रोनस) ऑर्बिट है। इसरो का SSLV मूल रूप से जुलाई 2019 में अपनी पहली विकास उड़ान भरने वाला था, लेकिन इसे वर्ष 2019 के अंत तक दाल दिया गया है

नासा का अंतरिक्षयान LRO चंद्रमा पर चंद्रयान-2 के विक्रम लैंडर का पता लगाने में इसरो की मदद करेगा।

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लूनर रिकॉनिसेंस ऑर्बिटर (Lunar Reconnaissance Orbiter- LRO) नासा का एक रोबोटिक अंतरिक्षयान है जो वर्तमान में चंद्रमा की परिक्रमा करते समय चित्रों के माध्यम से डेटा एकत्र करता है और चंद्रमा की सतह का अध्ययन करता है। LRO का प्राथमिक उद्देश्य चंद्रमा की सतह का उच्च-रिज़ॉल्यूशन (High Resolution) 3डी मानचित्र तैयार करना था जिससे चंद्रमा हेतु भविष्य के रोबोट और क्रू (Crew) मिशनों की सहायता की जा सके। LRO और लूनर क्रेटर ऑब्ज़र्वेशन एंड सेंसिंग सैटेलाइट मिशन (Lunar Crater Observation and Sensing Satellite Missions) 18 जून, 2009 को पृथ्वी से छोड़ा गया और इसने 23 जून, 2009 को चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश किया। सितंबर 2010 में LRO ने अपना प्राथमिक मानचित्रण मिशन पूरा किया और चंद्रमा के चारों ओर एक विस्तारित विज्ञान मिशन (Extended Science Mission) शुरू किया। यह नासा के विज्ञान मिशन निदेशालय के अंतर्गत कार्य करता है। LRO अंतरिक्षयान पर लगे उपकरण चंद्रमा के दिन-रात का तापमान, वैश्विक भू-स्थानिक ग्रिड (Global Geodetic Grid), चंद्रमा का एल्बिडो और उच्च रिज़ॉल्यूशन कलर इमेजिंग (High Resolution Color Imaging) से संबंधित जानकारियाँ उपलब्ध करा रहे हैं। भू-स्थानिक ग्रिड (Geodetic Grid): यह GPS आधारित सैटेलाइट नेविगेशन में इस्तेमाल हेतु एक मानक है। इस मानक में समन्वित प्रणाली के तहत पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण मॉडल, संबंधित चुंबकीय मॉडल का विवरण तथा स्थानीय परिवर्तन इत्यादि शामिल होते हैं।

चंद्रमा के ध्रुवीय क्षेत्रों पर विशेष रूप से ध्यान दिया जा रहा है क्योंकि यहाँ पर पानी की उपलब्धता की अधिक संभावनाएँ हैं। अनुमानतः LRO के पास अभी भी कम-से-कम छह वर्षों के लिये अपने मिशन पर बने रहने हेतु पर्याप्त ईंधन है।

चंद्रयान 2 (Chandrayaan 2) के लैंडर 'विक्रम' (Vikram) से संपर्क टूटा

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इस घटना के बाद चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के निकट यान उतारने वाला पहला देश बनकर इतिहास रचने का भारत का प्रयास संभवत: निराशा में बदल गया। विक्रम लैंडर योजना इसरो द्वारा पूर्व निर्धारित योजना के अनुरूप ही उतर रहा था और निर्धारित गंतव्य से 2.1 किलोमीटर (1.3 मील) पहले तक उसका प्रदर्शन सामान्य था। उसके बाद लैंडर (विक्रम) से संपर्क टूट गया। सॉफ्ट लैंडिंग के लिये यान की गति 6048 किमी. प्रतिघंटा से कम कर 7 किमी. प्रति घंटा या उससे भी कम करने की उम्मीद की जा रही थी। यदि चंद्रयान -2 मिशन सफलतापूर्वक चंद्रमा पर लैंड करता तो भारत चंद्रमा पर सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला विश्व का चौथा राष्ट्र बन जाता। चंद्रयान 2 का लैंडर विक्रम चांद पर सॉफ्ट लैंडिंग नहीं कर पाया। इससे मिशन को पूरी तरह से विफल नहीं कहा जा सकता है। चंद्रयान 2 ने अपना 95 प्रतिशत काम पूरा किया है। चंद्रयान 2 ऑर्बिटर के रूप में सफलतापूर्वक चंद्रमा की परिक्रमा कर रहा है। ऑर्बिटर का मिशन कार्यकाल एक वर्ष है। ऑर्बिटर का मुख्य कार्य चंद्रमा का नक्शा तैयार करना, सौर विकिरण की तीव्रता का परीक्षण करना और मैग्नीशियम, एल्युमिनियम, सिलिकॉन, कैल्शियम, टाइटेनियम, आयरन एवं सोडियम आदि जैसे प्रमुख तत्त्वों की उपस्थिति की जाँच करना है। यह चंद्रमा के ध्रुवीय क्षेत्रों में पानी-बर्फ का मात्रात्मक अनुमान लगाने का प्रयास करेगा। चंद्रयान-2, चंद्रयान-1 मिशन की ही अगली कड़ी है।जिसका उद्देश्‍य चंद्रमा पर उतकर उसकी सतह के अध्‍ययन के लिए रोवर फिट करना था ताकि चंद्रयान-1 के वैज्ञानिक कार्यों का दायरा और बढ़ाया जा सके।

चंद्रयान-2 ऑर्बिटर, लैंडर (विक्रम)
प्रज्ञान लूनर रोवर
  • चंद्रयान-2 22 जुलाई 2019 को आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से अंतरिक्षयान को (GSLV) मार्क III से सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया गया। इसरो का पहला अंतर-ग्रहीय मिशन(अन्य खगोलीय पिंड पर) था जिसे रोवर को किसी भी खगोलीय पिंड पर उतारने के लिए बनाया गया था। भारत का चंद्रमा पर किये गये इस दूसरे मिशन में पूरर्णत: स्वदेशी 3-मॉड्यूल होंगे जो इस प्रकार हैं-ऑर्बिटर, लैंडर (विक्रम) और रोवर (प्रज्ञान) का इस्तेमाल किया गया है। रोवर (प्रज्ञान) लैंडर (विक्रम) के अंदर स्थित है।

इसरो के इतिहास में पहली बार किसी मिशन की कमान दो महिलाओं को सौंपी गई है। रितु कृधल (Riru Kridhal) और एम वनिता (M Vanitha) चंद्रयान-2 मिशन के लिये क्रमश: परियोजना तथा मिशन निदेशक के रूप में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। यह मिशन चंद्रमा की सतह पर जल,हाइड्रॉक्सिल तथा अन्य तत्त्वों की मौजूदगी का पता लगाने व चंद्रमा के सतह की त्रिआयामी तस्वीरें लेने का कार्य करेगा।

  • चंद्रयान -2 के एक CLASS (Chandrayaan-2 Large Area Soft X-ray Spectrometer) नामक उपकरण ने अपने मिशन के दौरान आवेशित कणों का पता लगाया। यह घटना जियोटेल के माध्यम से ऑर्बिटर के गुजरने के दौरान हुई।

जियोटेल एक ऐसा क्षेत्र है जो सूर्य और पृथ्वी के बीच के पारस्परिक सौर वायु के प्रभाव से उत्पन्न होता है। जियोटेल अंतरिक्ष में पर्यवेक्षण का एक सर्वोत्तम क्षेत्र है। प्रत्येक 29 दिनों में चंद्रमा एक बार, लगभग छह दिनों के लिये जियोटेल क्षेत्र में रहता है उसी समय चंद्रयान -2, जो चंद्रमा की परिक्रमा कर रहा है, उसके उपकरण (CLASS) जियोटेल के गुणों का अध्ययन कर सकते हैं।

जियोटेल क्षेत्र कैसे बनता है?

सूर्य, आवेशित कणों की एक सतत् धारा के रूप में सौर वायु का उत्सर्जन करता है। ये कण सूर्य के विस्तारित चुंबकीय क्षेत्र में अंतर्निहित हैं। चूॅंकि पृथ्वी में भी एक चुंबकीय क्षेत्र है, जो सौर पवन प्लाज़्मा को बाधित करता है। इस परस्पर क्रिया से पृथ्वी के चारों ओर एक चुंबकीय आवरण बन जाता है। सूर्य की ओर वाला पृथ्वी का चुंबकीय आवरण क्षेत्र संकुचित हो जाता है जो पृथ्वी की त्रिज्या से लगभग तीन से चार गुना अधिक हो जाता है। इसके विपरीत दिशा में,यह आवरण एक पुच्छल के रूप में फैल जाता है, जो चंद्रमा की कक्षा से परे तक फैला होता है इसी पुच्छल वाले आवरण को जियोटेल कहा जाता है।

  • चंद्रयान- 2 मिशन का प्रक्षेपण GSLV MK III रॉकेट से किया गया, इस रॉकेट में अनसिमिट्रिकल डाई-मिथाइल हाइड्रोजेनाइन (Unsymmetrical Di-Methyl Hydrogenine- UDMH) ईंधन का प्रयोग किया गया।

इसरो ने नाइट्रोजन टेट्रॉक्साइड के ऑक्सीकारक के साथ अत्यधिक विषैले और संक्षारक (Corrosive) ईंधन UDMH का इस्तेमाल किया। इसे गंदा संयोजन (Dirty Combination) भी कहा जाता है।

विश्व के कई देश अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों में तरल मीथेन और केरोसीन जैसे ज़्यादा साफ-सुथरे ईधन का प्रयोग कर रहे हैं।

तरल मीथेन का ईधन के रूप प्रयोग करने के लिये क्रायोजेनिक इंजन की आवश्यकता होगी। किसी भी गैस को तरल रूप में रखने के लिये बेहद कम तापमान की आवश्यकता होती है। GSLV MK III इसरो द्वारा विकसित तीन-चरणों वाला भारत का सबसे शक्तिशाली प्रमोचक यान है। इसमें दो ठोस स्‍ट्रैप-ऑन (Solid Strap-Ons), एक कोर द्रव बूस्‍टर (Core Liquid Booster) और एक क्रायोजेनिक ऊपरी चरण (Cryogenic Upper Stage) शामिल है। GSLV MK III की विशेषताएँ: ऊँचाई: 43.43 मीटर व्यास: 4.0 मीटर ताप कवच का व्यास: 5.0 मीटर चरणों की संख्या: 3 उत्थापन द्रव्यमान: 640 टन GSLV MK III को भू-तुल्‍यकालिक अंतरण कक्षा (Geosynchronous Transfer Orbit- GTO) में 4 टन श्रेणी के उपग्रहों को तथा निम्‍न भू-कक्षा में लगभग 10 टन वज़न वहन करने हेतु डिज़ाइन किया गया है। GSLV MK III की यह क्षमता GSLV MK II से लगभग दोगुनी है। GSLV MK III का प्रथम विकासात्मक प्रमोचन 5 जून, 2017 को किया गया था जिसके तहत GSLV MK III-D1 की सहायता से GSAT-19 उपग्रह को भूतुल्‍यकालिक अंत‍रण कक्षा में सफलतापूर्वक स्‍थापित किया गया था। उल्लेखनीय है कि GSLV MK III-D2 ने 14 नवंबर, 2018 को उच्‍च क्षमता वाले संचार उपग्रह GSAT-29 का सफलतापूर्वक प्रमोचन किया था।

भारत 22 मई को श्रीहरिकोटा से पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल-कोर अलोन (PSLV-CA) वैरिएंट का उपयोग करते हुए राडार इमेजिंग अर्थ आब्जर्वेशन उपग्रह, RISAT-2B लॉन्च करेगा

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RISAT-2B, RISAT-2BR1, 2BR2, RISAT-1A, 1B, 2A के बाद लॉन्च किया जाना है। इसे धरती की लगभग 500 किमी ऊँचाई वाली कक्षा में स्थापित किया जाएगा। अपनी कक्षा में यह 37 डिग्री के कोण पर झुका होगा। यह एक्स बैंड सिंथेटिक अपर्चर राडार (SAR) युक्त उपग्रह है जिसका उपयोग धरती पर नज़र रखने के लिये किया जाएगा। बादलों के आच्छादित रहने पर भी इस उपग्रह की मदद से धरती पर नज़र रखी जा सकेगी। इससे सीमाओं पर किसी भी गतिविधि का पता लगाया जा सकेगा। इसमें सभी मौसम में निगरानी करने की क्षमता है जो सुरक्षा बलों और आपदा राहत एजेंसियों के लिये विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। RISAT सीरीज़ के बारे में राडार इमेजिंग सैटेलाइट (RISAT) ISRO द्वारा निर्मित भारतीय राडार इमेजिंग टोही उपग्रहों की एक श्रृंखला है। RISAT श्रृंखला इसरो का पहला ऑल-वेदर अर्थ ऑब्जर्वेशन उपग्रह है। पिछले भारतीय आब्जर्वेशन उपग्रह मुख्य रूप से ऑप्टिकल और स्पेक्ट्रल सेंसर पर आधारित थे जो आसमान में बादल होने पर ठीक से काम नहीं कर पाते थे। दरअसल, वर्ष 2008 में मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बाद इसरो ने अप्रैल 2009 को RISAT-2 उपग्रह लॉन्च किया था जिससे सशस्त्र बलों को काफी मदद मिली। हालाँकि तब इसरो की योजना स्वदेशी तकनीक से विकसित ‘सी बैंड’ सिंथेटिक अपर्चर राडार उपग्रह RISAT-1 लॉन्च करने की थी, लेकिन यह भारतीय उपग्रह तैयार नहीं था। भारत ने इज़राइली एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज़ से एक्स बैंड सिंथेटिक अपर्चर राडार लिया जिसे RISAT-2 में इंटीग्रेट कर छोड़ा गया। इस तरह RISAT-2 देश का पहला सिंथेटिक अपर्चर राडार युक्त उपग्रह बना, जिससे दिन या रात, हर मौसम में (24 घंटे) देश की सीमाओं की निगरानी करने की क्षमता बढ़ी। 2012 में इसरो ने RISAT-1 लॉन्च किया जिसे भारत का पहला स्वदेशी ऑल-वेदर राडार इमेजिंग उपग्रह के नाम से जाना जाता है। सिंथेटिक अपर्चर राडार (Synthetic Aperture Radar-SAR) सिंथेटिक अपर्चर राडार (SAR) इमेजिंग में माइक्रोवेव स्पंदन (Pulses) को एक एंटीना के माध्यम से पृथ्वी की सतह की ओर प्रेषित किया जाता है। अंतरिक्षयान में फैली माइक्रोवेव ऊर्जा को मापा जाता है। SAR राडार सिद्धांत का उपयोग करता है ताकि बैकस्कैटर (Backscattered) सिग्नल के समय देरी का उपयोग करके एक छवि (Image) बनाई जा सके।

भारत अंतरिक्ष युद्ध अभ्यास IndSpaceEx की ओर अग्रसर

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मार्च 2019 में एंटी-सैटेलाइट (Anti-Satellite/A-Sat) मिसाइल का सफलतापूर्वक परीक्षण और जून 2019 में ‘ट्राई सर्विस डिफेंस स्पेस एजेंसी’ (Tri-Service Defence Space Agency) की शुरुआत करने के पश्चात् भारत पहली बार सिमुलेटेड (कृत्रिम/बनावटी) अंतरिक्ष युद्ध अभ्यास (Simulated Space Warfare Exercise) की योजना बना रहा है, जिसे 'IndSpaceEx' नाम दिया गया है। यह अभ्यास मूल रूप से एक ‘टेबल-टॉप वॉर-गेम’ (‘Table-Top War-Game’) होगा, जिसमें सैन्य और वैज्ञानिक समुदाय के लोग हिस्सा लेंगे। किंतु टेबल-टॉप वॉर-गेम होने के बावजूद यह अभ्यास उस गंभीरता को रेखांकित करता है जिसके तहत चीन जैसे देशो से भारत अपनी अंतरिक्ष परिसंपत्तियों की रक्षा और संभावित खतरों से मुकाबला करने की आवश्यकता पर विचार कर रहा है।

उद्देश्य:-अंतरिक्ष का सैन्यीकरण होने के साथ-साथ इसमें विवादास्पद और प्रतिस्पर्द्धात्मक गतिविधियाँ भी हो रही हैं। इन गतिविधियों के मद्देनज़र भारत द्वारा अंतरिक्ष युद्धाभ्यास को शुरू करने का प्रमुख उद्देश्य अंतरिक्ष में अपनी स्थिति को और मज़बूत बनाना है।

एंटी-सैटेलाइट मिसाइल (A-SAT)का लक्ष्य किसी देश के सामरिक सैन्य उद्देश्यों के उपग्रहों को निष्क्रिय करने या नष्ट करने पर लक्षित होता है। वैसे आज तक किसी भी युद्ध में इस तरह की मिसाइल का उपयोग नहीं किया गया है। लेकिन कई देश अंतरिक्ष में अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करने और अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम को निर्बाध गति से जारी रखने के लिये इस तरह के मिसाइल सिस्टम की मौजूदगी को ज़रूरी मानते हैं। ‘IndSpaceEx’ योजना इस युद्ध अभ्यास के तहत भारत अंतरिक्ष में अपने विरोधियों पर निगरानी रखने, संचार, मिसाइल की पूर्व चेतावनी और सटीक लक्ष्य साधने तथा अपने उपग्रहों की सुरक्षा जैसी आवश्यकताओं पर बल देगा। इसके साथ ही अंतरिक्ष में रणनीतिक चुनौतियों को बेहतर ढंग से समझने में सहायता प्राप्त होगी जिनकी वर्तमान परिवेश में अत्यंत आवश्यकता है। चीन जनवरी 2007 में ‘A-Sat’ मिसाइल की सहायता से एक मौसम उपग्रह को नष्ट कर अंतरिक्ष में अपनी सैन्य क्षमताओं का पहले ही विकास कर चुका है। चीन ने हाल ही में अंतरिक्ष के क्षेत्र में अमेरिका के वर्चस्व को खतरे में डालने वाले अपने महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम को लॉन्च किया है। इस कार्यक्रम के तहत चीन ने समुद्र में तैरते एक प्लेटफॉर्म से अंतरिक्ष रॉकेट लॉन्च करने की क्षमता का विकास किया है।

‘मिशन शक्ति’ मार्च 2019 में भारत ने मिशन शक्ति को सफलतापूर्वक अंजाम देते हुए एंटी-सैटेलाइट मिसाइल (A-SAT) से तीन मिनट में एक लाइव भारतीय सैटेलाइट को सफलतापूर्वक नष्ट कर दिया।अंतरिक्ष में 300 किमी. दूर पृथ्वी की निचली कक्षा (Low Earth Orbit-LEO) में घूम रहा यह लाइव सैटेलाइट एक पूर्व निर्धारित लक्ष्य था।

अब तक रूस, अमेरिका एवं चीन के पास ही यह क्षमता थी और इसे हासिल करने वाला भारत दुनिया का चौथा देश बन गया है।

माइक्रोसैट-R एक सैन्य इमेजिंग उपग्रह था, जिसका वज़न 130 किलोग्राम था और इसे रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) द्वारा बनाया गया था।

इसे पृथ्वी की निचली कक्षा में स्थापित किया गया था। ऐसा पहली बार था जब भारतीय उपग्रह को ISRO द्वारा 274 किमी. से कम ऊँचाई में रखा गया हो। मिशन शक्ति के तहत मार्च 2019 में इसे नष्ट कर दिया गया। भारत अन्य काउंटर-स्पेस क्षमताओं जैसे कि निर्देशित ऊर्जा हथियार (Directed Energy Weapons- DEWs), लेज़र, ईएमपी (Electromagnetic Pulse) और सह-कक्षीय मारकों (Co-orbital Killers) के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक या प्राकृतिक हमलों से स्वयं के उपग्रहों की रक्षा करने की क्षमता को विकसित करने के लिये काम कर रहा है।

इसरो वर्ष 2030 तक अंतरिक्ष में अपना स्वयं का अंतरिक्ष स्टेशन निर्माण पर विचार कर रहा है।

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पहले से ही इसरो वर्ष 2022 में गगनयान मिशन की योजना पर कार्य कर रहा है, इस मिशन में भारत स्वयं के बल पर 3 भारतीयों को अंतरिक्ष में भेजने की योजना पर बना रहा है। इस योजना की सफलता के पश्चात् इसरो इस मिशन को जारी रखना चाहता है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत को स्वयं के अंतरिक्ष स्टेशन की आवश्यकता है। भारत ने वर्ष 2017 में ही स्पेस डॉकिंग जैसी तकनीक पर शोध करने के लिये बजट का प्रावधान किया था। यह तकनीक स्पेस स्टेशन में उपयोग होने वाले मोडयूल को आपस में जोड़ने के लिये आवश्यक होती है।

अंतरिक्ष स्टेशन को सामान्य शब्दों में ऐसे स्थान अथवा सुविधा (Facility) के रूप में समझा जाता है, जो अंतरिक्ष में स्थायी रूप से उपस्थित होता है एवं जिसका उपयोग अंतरिक्ष यात्री निवास स्थान के रूप में करते हैं। अंतरिक्ष स्टेशन को उसके आकार और वज़न के अनुसार कई हिस्सों में अंतरिक्ष में भेजा जाता है। इन हिस्सों को मोडयूल (Module) कहा जाता है। इन हिस्सों को अंतरिक्ष में ही डॉकिंग तकनीक से आपस में जोड़ दिया जाता है। अंतरिक्ष स्टेशन की स्थापना पृथ्वी की निम्न कक्षा (Low Earth Orbit-LEO) में की जाती है। इस कक्षा की रेंज पृथ्वी से 2000 किमी तक होती है।अंतरिक्ष यात्री स्टेशन में रहकर सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण (Microgravity) में विभिन्न विषयों यथा- जीव विज्ञान, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, मौसम विज्ञान आदि से संबंधित प्रयोगों को अंजाम देते है। सामान्यतः ऐसे प्रयोग पृथ्वी पर संभव नहीं होते, इनके लिये विशेष पर्यावरण की आवश्यकता होती है। साथ ही अंतरिक्ष के गहन अध्ययन के लिये भी ऐसे स्टेशन उपयोगी होते हैं।

अंतरिक्ष स्टेशन का इतिहास अंतरिक्ष से संबंधित तकनीक अधिक जटिल और खर्चीली होती है, इसको ध्यान में रखकर वर्ष 1960 के दशक में इस क्षेत्र में शोध कार्यों की शुरुआत हुई। सोवियत संघ और अमेरिका ने सर्वप्रथम इस क्षेत्र में प्रयासों को अंजाम दिया (शीत युद्ध की प्रतिस्पर्द्धा के कारण)। सोवियत रूस (USSR) ने सर्वप्रथम वर्ष 1971 में सल्युत (Salyut) नाम के अंतरिक्ष स्टेशन को अंतरिक्ष में स्थापित किया। इसके 2 वर्ष बाद ही अमेरिका ने स्कायलैब (Skylab) नाम से अंतरिक्ष में स्टेशन स्थापित किया। अब तक निर्मित कुल 11 अंतरिक्ष स्टेशनों में वर्तमान में सिर्फ 2 स्टेशन ही अंतरिक्ष में कार्यरत है इनमें एक अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (International Space Station- ISS) तथा दूसरा चीन का तियोंगयांग-2 (Tiangong-2) स्टेशन है ISS की स्थापना का आरंभ वर्ष 1998 में किया गया था और वर्ष 2011 से यह अपनी पूर्ण क्षमता के साथ परिचालित हो रहा है। इस अंतरिक्ष स्टेशन पर वर्ष 2000 में सर्वप्रथम अंतरिक्ष यात्रियों को भेजा गया था। ISS का परिचालन अमेरिका की नासा (NASA) अंतरिक्ष एजेंसी की अगुवाई में 16 देशों द्वारा किया जा रहा है। इन देशों में अमेरिका के साथ-साथ रूस, जापान, ब्राज़ील, कनाडा तथा यूरोप के 11 देश शामिल हैं। उपर्युक्त सभी स्टेशनों की स्थापना पृथ्वी से लगभग 400 किमी. की ऊँचाई पर की गई है ऐसे अंतरिक्ष स्टेशन पृथ्वी से भी देखे जा सकते हैं।

भारत के लिये अंतरिक्ष स्टेशन की आवश्यकता क्यों?

भारत ने वर्ष 2022 में गगनयान मिशन की सफलता के पश्चात् वर्ष 2030 तक एक छोटे आकार का अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करने की योजना बनाई है। इस स्टेशन का भार 20 टन होगा जो कि ISS और चीनी अंतरिक्ष स्टेशन से आकार में काफी हल्का है (इनका भार क्रमशः 450 टन और 80 टन है)। इस स्टेशन में 4-5 अंतरिक्ष यात्री 15-20 दिनों के लिये रुक सकेंगे। इस स्टेशन को पृथ्वी की निम्न कक्षा (LEO) में लगभग 400 किमी. की ऊँचाई पर स्थापित किया जाएगा। भारत के लिये अंतरिक्ष स्टेशन की आवश्यकता को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है- भारत से एकमात्र अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा वर्ष 1984 में सोवियत रूस द्वारा अंतरिक्ष में भेजे गए थे। इसके पश्चात् कोई अन्य भारत का नागरिक अंतरिक्ष में नहीं गया है। जो भी अन्य यात्री, जैसे- कल्पना शर्मा और सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष में गए है वे भारत के प्रतिनिधि के रूप में नहीं थे। ऐसे में ऐसा कोई देश जो वैश्विक शक्ति बनने की कामना रखता हो, किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं रह सकता। अतः भारत के लिये भी आवश्यक है कि अंतरिक्ष के क्षेत्र में अपने कदम बढ़ाए। भारत की अतीत में कुछ नीतियों (परमाणु नीति) के कारण भारत ISS का भी उपयोग नहीं कर सका है। साथ ही ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि ISS वर्ष 2024-2025 के पश्चात् प्रभावी रूप से कार्यरत नहीं रह सकेगा, ऐसे में यदि भारत इसके उपयोग का प्रयास करता है तब भी कोई लाभ नहीं होगा। भारत गगनयान मिशन की सफलता के पश्चात् भी इस मिशन को जारी रखने का इच्छुक है। ऐसे में भारत को सहायता के लिये अंतरिक्ष स्टेशन की आवश्यकता होगी।

स्पेस एक्स (SpaceX) तथा ब्लू ओरिजिन (Blue Origin) जैसी कंपनियाँ अंतरिक्ष को पर्यटन से जोड़कर लाभ लेने की योजना बना रही हैं, जिसमें नासा भी शामिल हो गया है। ऐसे में भारत के लिये भी आवश्यक है कि इस क्षेत्र में प्रगति करे ताकि भविष्य में अंतरिक्ष से होने वाले लाभों में सहभागी बन सके।

गगनयान कार्यक्रम के साथ भारत मानव अंतरिक्षयान मिशन शुरू करने वाला दुनिया का चौथा देश बन जाएगा। अब तक केवल अमेरिका, रूस और चीन ने मानव अंतरिक्षयान मिशन शुरू किया है। इसरो ने इस कार्यक्रम के लिये आवश्यक पुन: प्रवेश मिशन क्षमता, क्रू एस्केप सिस्टम, क्रू मॉड्यूल कॉन्फ़िगरेशन, तापीय संरक्षण व्यवस्था, मंदन एवं प्रवर्तन व्यवस्था, जीवन रक्षक व्यवस्था की उप-प्रणाली इत्यादि जैसी कुछ महत्त्वपूर्ण तकनीकों का विकास कर लिया है। इन प्रौद्योगिकियों में से कुछ को अंतरिक्ष कैप्सूल रिकवरी प्रयोग (SRE-2007), क्रू मॉड्यूल वायुमंडलीय पुन: प्रवेश प्रयोग (CARE-2014) और पैड एबॉर्ट टेस्ट (2018) के माध्यम से सफलतापूर्वक प्रदर्शित किया गया है। गगनयान को लॉन्च करने के लिये GSLVMK-3 लॉन्च व्हीकल का उपयोग किया जाएगा, जो इस मिशन के लिये आवश्यक पेलोड क्षमता से परिपूर्ण है। इस अंतरिक्षयान को 300-400 किलोमीटर की निम्न पृथ्वी कक्षा (Low Earth Orbit) में रखा जाएगा। इस मिशन की कुल लागत 10,000 करोड़ रुपए से कम होगी। अंतरिक्ष स्टेशन से लाभ:- अंतरिक्ष को भविष्य की कई संभावनाओं के लिये द्वार माना जा रहा है। इन संभावनाओं का सहभागी होने से भारत आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकता है। कुछ ऐसे प्रयोग होते हैं जिनको पृथ्वी पर नहीं किया जा सकता है तथा कुछ प्रयोगों को सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण (Microgravity) में करने के लिये भी अंतरिक्ष स्टेशन की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त भारत को अंतरिक्ष के गहन अध्ययन तथा गगनयान मिशन की सफलता के पश्चात् उसे जारी रखने के लिये भी स्टेशन उपयोगी है।

भारत के समक्ष चुनौतियाँ

भारत में ऐसे कार्यक्रमों को लेकर प्रायः कोष की कमी बनी रहती है ऐसे में अंतरिक्ष स्टेशन का निर्माण करना बहुत कठिन हो सकता है। ज्ञात हो कि ISS निर्माण में 160 बिलियन डॉलर का खर्च आया था। हालाँकि ISS का भार प्रस्तावित भारतीय स्टेशन से 20 गुना अधिक है फिर भी भारत को एक वृहद् कोष की आवश्यकता होगी। भारत स्वदेशी तकनीक का उपयोग करके अंतरिक्ष स्टेशन निर्मित करना चाहता है। ऐसे में भारत के लिये यह कार्य अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है। भले ही भारत ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में कई कीर्तिमान स्थापित किये हैं लेकिन भारत के लिये ऐसी तकनीक का निर्माण करना अभी भी जटिल है। वर्तमान युग में तकनीक में तीव्रता से परिवर्तन हो रहा है, यदि परियोजना अपने निश्चित समय से आगे बढ़ जाती है तो उससे संबंधित तकनीक में भी समय के साथ बदलाव करना जटिल हो जाता है। यह तकनीकी परिवर्तन न सिर्फ निर्माण के स्तर पर आवश्यक है बल्कि स्टेशन को बनाए रखने के लिये भी आवश्यक है। भारत के 20 टन भार के स्टेशन के निर्माण की योजना है। लेकिन भारत की भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए इसके आकार में वृद्धि करना आवश्यक होगा। भारत को भविष्य में ऐसे बदलावों को ध्यान में रख कर व्यापक योजना बनानी होगी।

संदर्भ

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  1. https://pib.gov.in/PressReleaseIframePage.aspx?PRID=1581260
  2. https://www.thehindubusinessline.com/news/science/human-cell-atlas-an-initiative-for-holistic-understanding-of-human-body/article28273195.ece
  3. https://www.thehindubusinessline.com/news/drdos-bio-digester-a-clean-way-to-dispose-of-human-waste-recycle-water/article26679463.ece
  4. https://timesofindia.indiatimes.com/home/sunday-times/these-companies-are-making-drinking-water-from-thin-air/articleshow/70005206.cms
  5. https://www.thehindubusinessline.com/news/science/india-successfully-launches-emisat-satellite/article26699384.ece