हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/श्रीकृष्ण का प्रेम

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श्रीकृष्ण का प्रेम
विद्यापति/

सन्दर्भ[सम्पादन]

प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि विद्यापति द्वारा रचित हैं। यह उनकी 'पदावली' से अवतरित हैं।

प्रसंग[सम्पादन]

इस पद में वे श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम का वर्णन कर रहे हैं। नायक (कृष्ण) ने नायिका (राधा) को कहीं देख लिया है। वह उसके सौंदर्य पर अत्यधिक मुग्ध हो गया है। इसमें कवि ने राधा की विभिन्न विशेषताओं का वर्णन किया है। राधा श्रीकृष्ण के मन में बसी हुई हैं। उसी की याद में वह डूबे हुए हैं। कवि भी स्वयं मानते हैं कि राधा भी श्रीकृष्ण के गुणों से आकर्षित होकर उनके पास चली आएँगी। वे इसी को रेखांकित करते हुए कहते हैं। इस पद में वे श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम का वर्णन कर रहे हैं। नायक (कृष्ण) ने नायिका (राधा) को कहीं देख लिया है। वह उसके सौंदर्य पर अत्यधिक मुग्ध हो गया है। अत: वह अपनी दशा का और नायिका के अपार सौंदर्य का वर्णन अपने सखा से अथवा राधा की अंतरंगिनी सखी से कर रहा है-

व्याख्या[सम्पादन]

जहाँ - जहाँ पग जुग धरई। तहि - तहि सरोरूह झाराई।.......विद्यापति कह जानि। तुअ गुन देहब आनि।।

वह (राधा) जहाँ-जहाँ अपने दोनों चरणों को रखती थी, वहीं वहीं पर कमल भर जाते थे। जहाँ-जहाँ उसके अंगों की कांति की झलक पड़ती थी, वहीं-वहीं पर बिजली की-सी चमक जाती थी। मैंने उस अपूर्व सुंदरी को क्या देखा, वह तो मानो मरे हृदय में ही प्रवेश कर गई। जहाँ-जहाँ उसके नेत्रों की ज्योति जाती थी, वहीं-वहीं कमलों की शोभा का प्रकाश हो जाता था। जहाँ-जहाँ उसकी तनिक-सी भी हँसी का संचरण होता था, वहीं-वहीं पर अमृत का विस्तार फैल जाता था। जहाँ-जहाँ पर उसके कुटिल कटाक्ष पड़ते थे, वहीं-वहीं पर कामदेव के लाखों बाण चलने लगते थे मैंने उस सुंदरी को तनिक ही देखा था, किन्तु अब वह मुझे तीनों लोकों में व्याप्त दिखाई दे रही है। यदि मैं अपने पुण्यों से पुन: उसके दर्शन पा सका तो तभी मेरा यह विरह-दु:ख नष्ट होगा। विद्यापति कहते हैं कि मैं निश्चित रूप से यह कह सकता हूँ कि तुम्हारे गुण फिर उसे लाकर तुम्हें दे देंगे, अर्थात् वह तुम्हारे गुणों से आकृष्ट होकर शीघ्र ही स्वयमेव तुम्हारे पास चली आएगी।

विशेष[सम्पादन]

1. राधा के व्यापक सौंदर्य का यह चित्रण जायसी-कृत पदमावती के अलौकिक सौंदर्य-वर्णन से संबंद्ध इन पंक्तियों की स्मृति करा देता है-

नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर सरीर।
      हँसत तो देखा हंस भा, दसन-ज्योति नग हीर।। 

2. एक वस्तु के स्थान पर दूसरी वस्तु की सम्भावना वर्णित होने से वस्तुत्प्रेक्षा अलंकार है।

3. सौंदर्य का अत्युक्तिपूर्ण वर्णन होने से अतिशयोक्ति अलंकार है।

4. लयात्मकता है।

5. मैथिली भाषा है।

7. बिंबात्मकता

8. भाषा में प्रवाह हैं।

शब्दार्थ[सम्पादन]

पग-जुग = दोनों चरण। सरोरुह - कमला। बिजुरि-तरंग - बिजली की चमक। कि हेरलि - क्या देखा। अपरुब गोरी- अपूर्व सुंदरी। पइठल - प्रवेश कर गई। नयन-बिकास = नेत्र-ज्योति। लहु हास - तनिक-सी हँसी। अमिय-बिथार - अमृत का विस्तार। कटाख - कटाक्ष। मदन = कामदेव। सर = बाण। धनि = सुंदरी। थोर = तनिक। तिन भुवन तीनों लोक। अगोर = व्याप्त। पुनु पुण्य। इह दुख = यह विरह का दु:ख। देयब आनि - लाकर दे देंगे।