हिंदी कविता (आधुनिक काल छायावाद तक) सहायिका/वह तोड़ती पत्थर
संर्दभ
वह तोड़ती पत्थर' प्रसिद्ध छायावादी कवि सूर्य कान्त त्रिपाठी ' निराला ' द्वारा रचित है। निराला जी अपनी रचनाओं में जीवन के मार्मिक दृश्य को उजागर करते है। यह कविता निराला की प्रसिद्ध काव्य संग्रह ' अनामिका ' में संकलित है ,सर्वप्रथम यह कविता मासिक पत्रिका ' सुधा ' में 1937 में प्रकाशित हुई थी ।
प्रसंग
वह तोड़ती पत्थर एक मर्मस्पर्शी एवं ' भ्रामक सरल ' कविता है। इस कविता में कवि ‘निराला’ जी ने एक पत्थर तोड़ने वाली मजदूरिन के माध्यम से शोषित समाज के जीवन की विषमता का वर्णन किया है
व्याख्या
कवि कहते है, मैने एक महिला को पत्थर तोड़ते हुए देखा। कवि इलाहाबाद के किसी रास्ते पर उस महिला को पत्थर तोड़ते हुए देखते है। निराला जी का ' इलाहाबाद के पथ ' का उल्लेख करने के पीछे कारण यह है कि उस समय इलाहाबाद कांग्रेस की गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था ,राजनीतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थान था ,इलाहाबाद एक सांकृतिक नगरी के रूप में प्रसिद्ध था, और ऐसे महत्वपूर्ण स्थान पर स्त्री की इतनी खराब स्थिति है ,तो अन्य स्थानों पर क्या होगी ,कही नहीं जा सकती । वह मजदूरिन पेड़ के नीचे बैठी है,जहां छाया नहीं मिल रही हैं, आस पास भी कोई छायादार जगह नहीं हैं। और वह अपनी इस स्थिति को स्वीकार चूकी है । इस प्रकार कवि शोषित समाज की विषमता का वर्णन करते है। और बताते है की मजदूर वर्ग अपना काम पूरी लग्न के साथ करते है। कवि महिला के रूप का वर्णन करते हुए कहते है, की महिला का रंग सावला है, परिपक्व अर्थात् युवा काल में आ गई है। आंखो में चमक, और मन अपने कार्य में लगा रखा हैं। और पत्थर तोड़ रही हैं। भरे यौवन में उसे रति की जगह काम करना पसंद था । सूरज अपने चरम पर जा पहुंचा है, गर्मी बढ़ती जा रही है। कवि बताते है दिन में सबसे कष्टदायक समय यही हैं। धरती - आसमान सब इस भीषण गर्मी से झुलस रहे है। महिला जहां काम कर रही है उसके सामने बड़े बड़े महलों की श्रृंखला है, उसकी नज़र उस भवन की ओर जाती हैं और ऐसा प्रतीत होता है की वह बड़े हथौड़े से सिर्फ पत्थर पर ही नहीं, उस पत्थर हृदय पर प्रहार कर रही है ,जो उस महलों में रहते हैं। कवि उसकी तरफ देखते है तो उसकी नज़रों से साफ स्पष्ट होता है की उसने बहुत जुल्म सहा लेकिन कभी कुछ बोली नहीं । एक आवाज कवि को सुनाई पड़ती है ,वैसी ध्वनि कवि ने पहले कभी नहीं सुनी थी ।लग रहा है रो रही है , परन्तु महिला रो नहीं रही है। कवि बताना चाहते हैं की महिला अपनी गरीबी के कारण दुखी है परन्तु उसने अभी तक अपनी हिम्मत नहीं हारी है। अचानक महिला को अपने कार्य का स्मरण होता है और एकाएक एक फिर से अपने कार्य में लग जाती है।
विशेष
1) सरल भाषा का प्रयोग है।
2)मार्मिक कविता है।
3)शोषित वर्ग की दयनीय स्तिथि को दर्शाया है।
4)पंक्तियां सरल लेकिन कलात्मकता के साथ हैं।
5)इस कविता में जगह समीक्षा के साथ साथ आत्म समीक्षा भी है।
6) यह कविता प्रगतिवादी कविता के आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित हैं।