हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/आंचलिक उपन्यास

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हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )
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आंंचलिक उपन्यास[सम्पादन]

स्वातंत्र्योत्तर उपन्यासों में हिन्दी साहित्य में फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘मैला आँचल’ से आंचलिक उपन्यास का सूत्रपात माना जाता है । प्रेमचंद के बाद उपन्यासों और कहानियों से जो ग्राम और अंचल मृतप्राय हो गए थे उन्हें पुनर्जीवित करने का काम फणीश्वरनाथ रेणु ने किया है । आंचलिक उपन्यास में किसी अंचल विशेष अथवा किसी अपरिचित समाज आदि के जनजीवन, वहाँ के रहन-सहन, रीति-रिवाज, लोकव्यवहार, आचार-विचार आदि का पूरी सहृदयता के साथ चित्रण किया जाता है। आंचलिक उपन्यास के सशक्त अभिव्यक्ति के लिए उपन्यासकार को वर्णित अंचल से अछी तरह सामंजस्य स्थापित करना, उनमें अछी तरह घुल-मिल जाना पड़ता है। आंचलिक उपन्यास में अंचल विशेष का कोई भी कोना उपन्यासकार की दृष्टि से अछूता नहीं रहना चाहिए । आंचलिक उपन्यास के क्षेत्र में फणीरनाथ रेणु का ‘मैला आँचल’, ‘परती परकथा’, ‘दीर्घतपा’, ‘जलुसू’, ‘कितने चौराहे’, ‘पलटू बाबू रोड’; नागार्जुन का ‘बलचनमा’, ‘दुःखमोचन’, ‘वरूण के बेटे’, उदयशंकर भट्ट का ‘सागर लहरें और मनुय’; राही मासमू रज़ा का ‘आधा गाँव’; रांगेय राघव का ‘कब तक पुकारूँ ’; रामदरश मिश्र का ‘पानी के प्राचीर’ और ‘जल टूटता हुआ’; शिवप्रसाद सिंह का ‘अलग अलग वैतरणी’; श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’; विवेक राय का ‘बबूल’, ‘पुरूष पुराण’, ‘लोकऋण’, ‘सोनामाटी’; शैलेश मिटयानी का ‘कबूतरखाना’, ‘दो बूँद जल’, ‘चौथी मुट्ठी ’ आदि आंचलिक उपन्यास भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न अंचलों की कथा का आख्यान करते हैं। आंचलिक उपन्यासकारों ने इन उपन्यासों की रचना के समय उस अंचल का सापेक्षिक अध्ययन किया है। अतः इसमें सामाजिक जन-जीवन, राजनैतिक षड्यंत्र, जीवन का यथार्थ, सामान्य मनुष्य-जीवन की समस्याएँ और उनसे उबरने के लिए किए गए संघर्ष के विविध आयाम का यथार्थ उभरकर सामने आता है। आंचलिक उपन्यास आधुनिक सुख-सुविधाओं से परे, शिक्षा और भौतिक सुविधाओं से उपेक्षित परम्परावादी समाज की जीवन-गाथा होते हैं। ये उपन्यास सामाजिक चित्रण के साथ-साथ आधुनिकता का परचम उठाकर चलने वाले वर्तमान राजनैतिक दलों की वास्तविकता का प्रदर्शन करते हए उनके नीतियों और राजनैतिक मंशा की बखिया उधेड़ते हए दिखाई पड़ते हैं।