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हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/जनवादी साहित्य

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हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )
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जनवादी साहित्य

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आज की परिस्थितियों में जनवादी साहित्य से तात्पर्य व्यवस्था विरोधी साहित्य से है।उस व्यवस्था का विरोधी साहित्य जिसमें 90% की कमाई पर 10% लोग मौज कर रहे हैं।जनवादी साहित्य मुट्ठी भर शोषक-शासक वर्ग के प्रति विशाल शोषित जन-समुदाय की मुक्ति का उद्घोष है।जनवादी लेखन के इसी व्यापक स्वरूप और उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए डॉ कुंवरपाल सिंह लिखते हैं - "जनवाद का वास्तविक अर्थ है साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, सामंती व्यवस्था और उसके जीवन-मूल्यों का सक्रिय विरोध श्रमिक वर्ग और पीड़ित जन के साथ वास्तविक हमदर्दी।"


जनवादी साहित्य की पहली प्रवृत्ति है - आम आदमी का चित्रण जनवादी साहित्य के केन्द्र में वह आदमी है,जो हर तरह के शोषण-दमन और अत्याचार का शिकार है,जो हर तरफ उपेक्षित और तिरस्कृत है।जो दिन भर कठिन श्रम करने के बाद भी शाम को अपने परिवार के लिए भरपेट भोजन की व्यवस्था नहीं कर पाता, जिसकी जिंदगी अभाव का पर्याय बन चुकी है।


जनवादी साहित्य की दूसरी महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है - सामाजिक विद्रुपताओं और विसंगतियों का उद्घाटन। पूंजीवादी व्यवस्था के परिणाम स्वरूप उत्पन्न पतनशील मूल्यों एवं सामाजिक विकृतियों तथा विद्रुपताओं को जनवादी कवियों ने अपनी रचनाओं में बेनकाब करने की कोशिश की है। सामाजिक संदर्भों में अर्थ की निर्णायक भूमिका, टूटते-बिखरते परिवार,अलगाव, अमानवीयता, व्यवस्था चौतरफा समस्याओं की मार और इन सारी तबाहियों के बीच घुट-घुट कर जीते हुए आदमी के जीवन को त्रासदी का सशक्त चित्रण जनवादी कविताओं में हुआ है।


जनवादी साहित्य की तीसरी प्रवृत्ति है - उसका वर्गीय दृष्टिकोण।जनवादी रचनाकार वैज्ञानिक चेतना से लैस होता है। वह जानता है कि वर्ग विभाजित समाज में हर चीज की भांति साहित्य का भी वर्गीय स्वरुप होता है और शोषक तथा शोषित वर्गों में से किसी एक के प्रति सबको अपनी पक्षधरता और प्रतिबद्धता घोषित करनी पड़ती है। बीच की अर्थात् तटस्था की कोई स्थिति नहीं होती।अपने आप को तटस्थ बताने वाले लोग कहीं न कहीं शोषकों के साथ होते हैं,उनकी सेवा कर रहे होते हैं और यथास्थिति को बनाए रखना चाहते हैं। जनवादी रचनाकार अपने को पक्षधरता घोषित करता है और करोड़ों मेहनतकश जनता के संघर्ष में सहभागी होता है।