हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/प्रयोगवाद
परिचय
[सम्पादन]सन् 1943 ई. में हिन्दी साहित्य जगत् ‘प्रयोग’ के एक नये ‘वाद’ से परिचत हआ जिसे प्रयोगवाद के नाम से जाना जाता है । प्रयोगवाद की चर्चा का प्रारम्भ एक विशिष्ट प्रकार की सर्जना और उसके साथ होने वाले प्रयोगवाद के सदर्भ में हआ ।‘प्रयोगवाद ’ का अभिप्राय स्पष्ट करते हए कुछ आलोचकों ने कहा कि इस धारा के साहित्यकार नवीन प्रयोग करने में विश्वास करते हैं । भाषा, शिल्प, भाव, प्रतीक, बिम्ब सभी दृष्टियों से ‘प्रयोग’ करना ही प्रयोगवादियों का अभीष्ट है । हालाँकि, अज्ञेय ने ‘दूसरे सप्तक’ की भूमिका में इसका खंडन करते हुए लिखा है कि “प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं है, वरन् वह दोहरा साधन है । एक तो वह उस सत्य को जानने का साधन है जिसे कवि प्रेषित करता है, दूसरा वह उस प्रेषण-क्रिया को और उसके साधनों को जानने का साधन है ।"
सैद्धान्तिक आधारभूमि
[सम्पादन]प्रयोगवादी साहित्य ह्रासोन्मुखी मध्यमवर्गीय समाज के जीवन का सजीव चित्रण है। प्रयोगवादियों ने जिस नये सत्य के अन्वेषण और प्रेषण के नये माध्यम की खोज की घोषणा की, वह सत्य वतुतः मध्यमवर्गीय समाज के व्यक्ति का सत्य है। उल्लेखनीय है,कि प्रयोगवादी परम्परा के अधिकांश कवि स्वयं मध्यम वर्ग के है और उनमें से अधिकतर रचनाकार अपने व्यक्तिगत सुख-दुःख एवं संवेदनाओं को काव्य अथवा कला का माध्यम मानकर नये-नये माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। अज्ञेय, शमशेर, गिरजाकुमार माथुर, धर्मवीर भारती आदि प्रयोगवाद के प्रतिनिधि साहित्यकार है। प्रयोगवादी हिन्दी साहित्य के सैद्धान्तिक आधारभूमि को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत दैखा जा सकता है –
- प्रयोगवादी चिन्तन ‘व्यष्टि चेतना’ पर आधारित है, जो अस्तित्ववाद से अनुप्राणित है।
- प्रयोगवादी उसी यथार्थ को अभिव्यक्त करते है, जिसे वे स्वयं भोगते अथवा स्वयं अनुभव करते हैं।
- भोगे हए यथार्थ एवं वैयक्तिक अनुभूतियों को अधिकाधिक व्यक्त करने की चेष्टा में प्रयोगवादी साहित्यकारों की दृष्टि व्यापक जनजीवन के मनोजगत् की वृतियों, आकांक्षाओं और समस्याओं के ओर अपेक्षाकृत कम ही गई हैं।
- प्रयोगवाद की व्यष्टि चेतना समाजोन्मुखी हैं, जिसमें एक ओर तो व्यक्ति की महत्ता प्रतिपादित की गई है, तो वहीं दूसरी ओर उसमें ‘क्षणवादी’ जीवन-दर्शन को भी विशेष महव दिया गया है।
- प्रयोगवाद ने भावुकता के स्थान पर ठोस बौद्धिकता को स्वीकार किया है।
- ‘दूसरे सप्तक की भूमिका’ में अज्ञेय ने स्पष्ट घोषणा की है, कि – "प्रयोगवाद का कोई वाद नहीं है । हम वादी नहीं रहे, नहीं हैं। न प्रयोग अपने आप में इष्ट या साध्य है । ठीक इसी तरह कविता का भी कोई वाद नहीं है; अत: हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है, जितना हमें कवितावादी कहना।"