भारतीय काव्यशास्त्र/काव्य प्रयोजन

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भारतीय काव्यशास्त्र
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काव्य प्रयोजन का तात्पर्य है काव्य का उद्देश्य अथवा रचना की आंतरिक प्रेरणा शक्ति। संस्कृत काव्यशास्त्र में किसी विषय के अध्ययन के लिए चार क्रमों का निर्धारण किया गया है - अधिकारी, संबंध, विषयवस्तु और प्रयोजन। इस समुच्चय को 'अनुबंधचतुष्टय' कहते हैं। इस अनुबंधचतुष्टय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रम है - प्रयोजन। काव्य प्रयोजन का अर्थ है काव्य रचना से प्राप्त फल। जैसे - धन, यश, आनंद आदि। काव्य प्रयोजन की चर्चा करते समय काव्य हेतु से इसके अंतर की चर्चा की जाती है। भारतीय आचार्यों ने काव्य या साहित्य को सोद्देश्य माना है, अतः भरतमुनि से विश्वनाथ तक काव्य के प्रयोजन पर विचार करने की लंबी परंपरा रही है। इन मतों का ऐतिहासिक क्रम में विवेचन कर हम काव्य के प्रयोजन को स्पष्ट कर सकते हैं।

भरत[सम्पादन]

इन्होंने सर्वप्रथम नाट्य के माध्यम से काव्य के प्रयोजन का उल्लेख किया है। इनके अनुसार नाटक धर्म, यश एवं आयु का साधक, कल्याणकारण, बुद्धिवर्द्धक एवं लोकोपदेशक होता है। केवल इतना ही नहीं बल्कि यह लोकमनोरंजक एवं शोकपीड़ितों को शांति प्रदान करने वाला भी है।

"उत्तमाधममध्यानां नराणांकर्मसंश्रयम्।
हितोपदेशजननं धृतिक्रीडा सुखादिकृत्॥
दुःखार्त्तानां श्रमार्त्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम्।
विश्रामजननं लोके नाट्यमेतद् भविष्यति॥
धर्म्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्धनम्।
लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति॥" - (नाट्यशास्त्र, १/११३-१५)

अर्थात् उत्तम, मध्यम, और अधम मनुष्यों के कर्म को अच्छे ढंग से आश्रय देने (निरूपित करने) के लिए और हितकारी उपदेश देने के लिए, सुख प्रदान करने वाली यह बुद्धि की क्रीड़ा अर्थात् रचना होगी । दुःख, श्रम,शोक से आर्त्त और तपस्वियों को विश्राम (मनोरंजन) देने के लिए यह नाटक (काव्य) होगा। धर्म, यश, आयुष्य और हित व बुद्धि को बढ़ाने वाले तथा लोगों को (उचित) उपदेश देने के लिए यह नाटक होगा यानि कि इसकी रचना होगी। यहां भरत मुनि ने नाटक के बहाने काव्य के आश्रय लोगों से जोड़ कर रचना कर्म के उद्देश्य का निरूपण किया है। नाटक की रचना से केवल रचनाकार को ही श्रेय नहीं मिलेगा बल्कि उसके आश्रय सामाजिक लोगों को भी उसका फल मिलेगा। यह नाटक लोगों को धर्म, आयुष्य, हित और बुद्धि को बढ़ाने वाला तो होगा ही, इसके साथ साथ लोगों को उत्तम, मध्यम और अधम लोगों की पहचान करने में सहायक तथा हितकारी उपदेश देने वाला भी होगा। यह लोगों की शारीरिक पीड़ा (दुःख) को दूर करने वाला होगा, श्रम (कार्य) से उत्पन्न थकान को दूर करने वाला होगा, शोक (मानसिक विषाद या क्लेश) को दूर करने वाला होगा। इसके अलावा यह तपस्वियों को विश्राम (मनोरंजन) देने के लिए भी होगा। यहां पर रचना (काव्य) की उपयोगिता को लोक कल्याण से जोड़ कर देखा गया है। रचना का उद्देश्य इतनी व्यापकता में और वह भी सामाजिक (सहृदय लोगों) की श्रेणियों को बताते हुए अन्य किसी से भरत के पहले या बाद में निरूपित किया नहीं किया है। रचना व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं है और रचना को उद्देश्य केवल निजी लाभ नहीं होना चाहिए, यह मौलिक दृष्टिकोण भरत को कालातीत महत्व प्रदान करता है।

भामह[सम्पादन]

"धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।
करोति कीर्त्ति प्रीतिं च साधुकाव्य-निबंधनम्॥" - (काव्यालंकार, १/२)

आचार्य भामह के अनुसार धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और कलाओं में विचक्षणता (अद्भुत निपुणता) पाने के साथ साथ कीर्ति और लोगों का प्यार (लोकप्रियता) पाने के लिए साधु अर्थात् श्रेष्ठ काव्य की रचना (कवि करता है) होती है। यहाँ पर भामह ने चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति को काव्य रचना का कारण बताकर कवि के लिए अन्य सांसारिक जिम्मेदारियों के निर्वाह को उसी में समाहित कर दिया है। कवि जब तक अन्य कर्तव्य और चिन्ताओं में फंसा रहेगा तब तक वह व्यक्तिगत राग द्वेष के अधीन होकर श्रेष्ठ काव्य की रचना नहीं कर सकता क्योंकि रचनाकार को द्रष्टा रूप में ही काव्योचित सत्य की उपलब्धि हो सकती है। ऐसा न रहने पर उसकी रचना में व्यापक लोक सामान्य अनुभव समाहित नहीं हो पाएंगे और वह रचना समाज में क्लेश व विघटन लाने वाली होकर जीवन के संतुलन को भंग करने वाली हो सकती है। धन प्राप्ति के लिए उसे कोई अन्य कर्तव्य करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि कलाओं में निपुणता प्राप्त करने पर वह कहीं पर भी जीविका उपलब्ध कर लेगा। यश और लोकप्रियता हासिल करने पर उसकी भौतिक जरूरतें अपने आप पूरी हो जाएंगी। श्रेष्ठ काव्य की रचना से सारे अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति हो सकती है, ऐसा भामह का मानना है।

वामन[सम्पादन]

इनके अनुसार काव्य के मुख्यतः दो प्रयोजन हैं - दृष्ट एवं अदृष्ट। दृष्ट प्रयोजन का संबंध प्रीति से है तो अदृष्ट का संबंध कीर्ति से। प्रीति के द्वारा लौकिक फल की तो कीर्ति द्वारा अलौकिक फल की प्राप्ति होती है।

"काव्यं सत् दृष्टादृष्टार्थ प्रीतिकीर्त्तिहेतुत्वात्।
काव्यं सत् चारु, दृष्टप्रयोजनं प्रीतिहेतुत्वात्।
अदृष्ट प्रयोजनं कीर्त्तिहेतुत्वात्।" (काव्यालंकारसूत्रवृत्ति, १/१/५)

यहां पर दृष्ट व अदृष्ट तथा दोनों के साथ चारू का विशेषण रूप में प्रयोग व्याख्या की अपेक्षा रखता है। दृष्ट अर्थात् जो दिखाई दे, जिसे वामन ने प्रीति के साथ जोड़ कर रखा है। प्रीति का मतलब है कि सहज प्रेम या स्वाभाविक प्रवृत्ति। जैसे अर्थ और काम में मनुष्य की स्वाभाविक रूचि और उसे पाने की इच्छा होती है, लेकिन इनको पाने के लिए अनुचित व अमर्यादित रास्ता अपनाना गलत होगा। इसलिए चारू विशेषण के द्वारा समाज व परम्पराओं द्वारा मान्यता प्राप्त मार्ग के रूप में काव्य की रचना का विधान किया गया है। केवल रचना द्वारा ही नहीं उनके पाठ व गान द्वारा भी प्रीति की प्राप्ति होती है। जैसे सूत, मागध एवं बन्दी जनों द्वारा श्रेष्ठ काव्य का गायन करने पर अर्थ की उपलब्धि होती है। मनुष्य की मूल प्रवृत्ति के रूप में काम भावना का परिष्कार श्रेष्ठ काव्य के पढ़ने सुनने से होता है। उसके भीतर अवांछनीय भोग लालसा का शमन होता है। ऐसे ही कीर्ति को चारूत्व के साथ जोड़ने का भी विशेष अभिप्राय है। काव्य रचना की शक्ति की दुर्लभता की बात काव्य हेतु के अन्तर्गत पूर्व आचार्यों ने की थी। इस शक्ति के दुरूपयोग के प्रति भी वे सजग थे। वामन ने यहाँ उसी ओर संकेत किया है। कीर्ति हासिल करने के प्रमुख उपाय के रूप में दो पुरुषार्थ का विवेचन संस्कृत साहित्य में मिलता है। धर्म और मोक्ष। धर्म कार्य के सम्पादन से यश मिलता है लेकिन केवल यश के लिए किया जाने वाला धर्म का अनुष्ठान दम्भ व पाखण्ड का पोषक होता है। इसी तरह मोक्ष प्राप्त करने का अर्थ है ज्ञान की प्राप्ति। यहीं पर चारूत्व द्वारा कीर्ति पाने के उपाय रूप में काव्य को माध्यम बनाने के लिए सावधानी बरतने की जरूरत पर वामन बल देते हैं। गलत तरीके से यश पाने के लिए कवित्व शक्ति का दुरूपयोग कोई न करे जिससे सामाजिक व्यवस्था भंग हो, इसकी चिन्ता वामन को है। पुरुषार्थ सिद्धि का सम्बन्ध एषणात्रय की पूर्ति से जुड़ा हुआ है जिसका संबंध मनुष्य के भीतर तीन मूल इच्छाओं से है - पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा। पुत्रैषणा यानि कि पुत्र या संतान की इच्छा या काम सुख की इच्छा। वित्तैषणा यानि कि धन की इच्छा। लोकैषणा यानी यश या कीर्ति की इच्छा। इन्हीं तीन मूल इच्छाओं की सही तरीके से पूर्ति के लिए चार पुरूषार्थों की अवधारणा का विकास हुआ। आचार्य वामन के समय लोकभाषा कवि और संस्कृत भाषा के कवियों द्वारा कवित्व शक्ति का दुरूपयोग किया जा रहा था। काव्य दोष की विस्तृत अवधारणा का आधार यही कवित्व शक्ति का गलत तरीके से अपने निजी स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने से उत्पन्न अव्यवस्था थी। वामन ने एक आचार संहिता और नैतिकता के निर्माण की कोशिश में अपने काव्य प्रयोजन को विकसित किया है।

रुद्रट[सम्पादन]

भामह के काव्य-प्रयोजन का विस्तार करते हुए रुद्रट मानते हैं कि काव्य का प्रयोजन चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की फल-प्राप्ति के अतिरिक्त अनर्थ का शमन, विपत्ति का निवारण, रोगविमुक्ति तथा अभीष्ट वर की प्राप्ति है।

"ननु काव्येन क्रियते सरसानामवगमश्चतुर्वर्गे।
लघुमृदुनीरसेभ्यस्ते हि त्रयस्संति शास्त्रेभ्यः॥
अर्थमनर्थोपशमं शमसममथवा मतं यदेवास्य।
विरचितरुचिरसुरस्तुतिरखिलं लभते तदेव कविः॥
नृत्वा यथा हि दुर्गा केचित्तीर्णा दुस्तरां विपदम्।
अपरे रोगविमुक्तिं वरमन्ये लेभिरेऽभिमत्म्॥" (काव्यालंकार, १२/१, १/८, ९)

रुद्रट का काव्य प्रयोजन कवि की जरूरतों से अधिक जुड़ा हुआ है। काव्य द्वारा चतुर्वर्ग अर्थात् चारों पुरुषार्थों में सरस अवगमन या उनकी प्राप्ति होती है। शास्त्र द्वारा निर्मित विधानों को भी सुबोध शैली में काव्य प्रस्तुत करता है। पाठकों और कवि दोनों के लिए अनर्थ का नाश, शांति की उपलब्धि ,विपत्ति से छुटकारा, रोग का नाश और अभिलषित वर की प्राप्ति या इच्छा पूर्ति में सहायक काव्य की रचना कवि की समस्त भौतिक बाधाओं को दूर करने का माध्यम है। लोक और राजसभा, दोनों जगह कवि के अभीष्ट की सिद्धि में काव्य रचना समर्थ है। रूद्रट का काव्य प्रयोजन इस मायने में विशिष्ट है कि वह अनर्थ, विपत्ति के विविध रूपों के निवारण में समर्थ काव्य के अलौकिक महत्व की प्रतिष्ठा करता है। यह तन्त्र और आगम ग्रंथों की रचना का काल भी है। कवित्व शक्ति द्वारा नये नये मंत्र शास्त्रों व संहिताओं का निर्माण उस समय हो रहा था, इसकी जानकारी यहाँ मिलती है।

कुंतक[सम्पादन]

इन्होंने काव्य के मुख्यतः तीन प्रयोजनों का उल्लेख किया है - (१) चतुर्वर्ग की प्राप्ति की शिक्षा (२) व्यवहार आदि के सुंदर रूप की प्राप्ति तथा (३) लोकोत्तर आनंद की उपलब्धि।

"धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः।
काव्यबंधोऽभिजातानां हृदयाह्लादकारकः॥
व्यवहार परिस्पंद सौंदर्य व्यवहारिभिः।
सत्कावयाधिगमादेव नूतनौचित्यमाप्यते॥
चतुर्वर्गफलस्वादमप्यतिक्रम्य तद्विदाम्।
कायामृतरसेनांतश्चमत्कारो वितन्यते॥ - (वक्रोक्तिजीवितम्, १/३, ४, ५)

काव्य धर्मादि का साधन और उपाय है। साधन कवियों के लिए और उपाय पाठकों के लिए। काव्य को पढ़ना भी धर्म माना जाता है। स्वाध्याय को संस्कृत साहित्य में यज्ञ और तपस्या का दर्जा दिया गया है। यह अपनी सुकुमारता या सरसता से लोगों को तुरंत यह बोध कराता है कि कैसे धर्म व अन्य पुरुषार्थों का सम्पादन किया जा सकता है। अभिजात अर्थात् सुरुचि सम्पन्न और परिष्कृत विचारों वाले लोगों के हृदय को आह्लाद यानि कि प्रेम जनित आनंद प्रदान करता है। व्यवहार में सौन्दर्य की वृद्धि करता है। कवित्व शक्ति सम्पन्न लोगों को विशेष सम्मान तो मिलता ही है, जो उनको धारण करते हैं उनको भी विशेष रूप में व्यवहार करने का ज्ञान मिलता है। चतुर्वर्ग के फल द्वारा प्राप्त स्वाद या आनंद का अतिक्रमण करके काव्य रूपी अमृत से विद्वानों के उत्तम आनंद चमत्कार को बढ़ाने वाला यह काव्य होता है। इसका तात्पर्य यह है काव्य का चमत्कार ही यही है कि उसकी रचना के साथ पुरूषार्थों की सिद्धि अलग से करने की जरूरत नहीं पड़ती है। विद्वानों के लिए काव्य रचना ही साध्य व साधन दोनों हैं।

मम्मट[सम्पादन]

काव्य प्रयोजन के संबंध में अपने पूर्ववर्ती मतों का समाहार करते हुए मम्मट कहते हैं कि -

"काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परिनिर्वृत्तये कांतसम्मिततयोपदेशयुजे॥" - (काव्यप्रकाश, १/२)

काव्य रचना का कारण व्यावहारिकता के धरातल पर अधिक व्यापक रूप में (उपयोगिता की नज़र से) पेश करते हुए मम्मट मानते हैं कि काव्य से यश, धन, व्यवहार ज्ञान, अमंगल का नाश, तुरंत आनंद की प्राप्ति और कांता (प्रेमी, प्रेयसी) की तरह उपदेश मिलता है। कविता रचने पर कालिदास, भारवि, माघ की तरह उत्तम यश मिलता है। धावक कवि की तरह या बिहारी की भांति धन की प्राप्ति होती है। महाभारत, पंचतंत्र हितोपदेश आदि काव्यों से लोकव्यवहार की जानकारी होती है। काव्य से अमंगल का नाश ( रोग, व्याधि या शाप) होता है। जैसे मयूरभट्ट ने सूर्य शतक द्वारा और महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य की रचना द्वारा कुष्ठ रोग से मुक्ति पायी थी। किंवदंती है कि गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमान बाहुक द्वारा शारीरिक पीड़ा से राहत प्राप्त की थी। पुष्पदंत ने शिवमहिम्न स्तोत्र द्वारा शाप से मुक्ति हासिल की थी। स्तोत्र साहित्य (शंकराचार्य आदि का) या भक्ति साहित्य, रामायण या रामचरितमानस की तरह रचना या पाठ से तुरंत आनंद या मुक्ति मिलती है। कांता (प्रेयसी) की तरह उपदेश द्वारा जीवन के कठिन समय में उचित परामर्श या मार्गदर्शन भी काव्य से प्राप्त होता है। जैसे रामायण, महाभारत आदि आर्ष काव्यों द्वारा। तीन प्रकार के उपदेश बताए जाते हैं - प्रभु सम्मित, सुहृद सम्मित और कांता सम्मित। प्रभु सम्मित वाक्य का अर्थ है जो आदेशात्मक रूप में होते हैं अर्थात् जिनको करना या नहीं करना निश्चित होता है। वेदों, स्मृतियों के वचन प्रभु सम्मित वाक्य के अन्तर्गत आते हैं। सुहृद सम्मित वाक्य में मित्र की तरह कल्याणकारी उपदेश और जीवनोपयोगी चर्चा आती है। जैसे पुराण इतिहास आदि के सन्दर्भ। कांता सम्मित वाक्य वहाँ होते हैं जहाँ प्रेयसी की तरह कल्याणकारी मधुर वचन द्वारा किसी को वास्तविक कर्तव्य या कल्याण का बोध कराया जाता है। सुहृद सम्मित वचन में उदाहरण द्वारा यह बताया जाता है कि उसने ऐसा किया और उसे ऐसी गति प्राप्त हुई इसलिए जो करना हो करो। यहाँ थोड़ी उपेक्षा का भाव भी रहता है लेकिन कांतासम्मित वाक्य में प्रेमिका की तरह मान-मनुहार और हर तरह से आत्मीयता द्वारा मधुर वचनों में उपदेश दिया जाता है। काव्य इसीलिए वेदों, पुराणों या इतिहास से अलग होता है क्योंकि उसमें चारूत्व (सौन्दर्य) पर आधारित शब्दार्थ प्रधान होता है। मम्मट की यह परिभाषा कवि और पाठक दोनों की जरूरतों में आवश्यक तालमेल बैठाने तथा कविता द्वारा दोनों की जरूरतें पूरी होने के सामंजस्यवादी दृष्टिकोण का परिणाम है। भरत मुनि के यहाँ सामाजिक का महत्व अधिक और कवि की जरूरतों की उपेक्षा दिखाई देती है तो भामह आदि आचार्य कवि की आवश्यकता को मुख्यतः ध्यान में रखते हैं। मम्मट के यहाँ कवि और सामाजिक (पाठक) दोनों के हितों व जरूरतों का उचित अनुपात में ध्यान रखा गया है।

विश्वनाथ[सम्पादन]

मम्मट के पश्चात काव्य के प्रयोजन पर विचार में नवीनता का अभाव मिलता है। बाद के आचार्यों ने केवल मम्मट के ही विचारों को व्याख्यायित किया है। विश्वनाथ ने काव्य के प्रयोजन के तहत चतुर्वर्ग की प्राप्ति को महत्व दिया है। इनके अनुसार शास्त्र का भी यही प्रयोजन है किन्तु शास्त्र का अनुशीलन कष्टसाध्य है और सबको सुलभ नहीं है। काव्य के अध्ययन से जनसामान्य को भी चतुर्वर्ग की प्राप्ति संभव है। "चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि।" - (साहित्यदर्पण, १/२) कहना न होगा कि विश्वनाथ की चतुर्वर्ग की प्राप्ति के उद्देश्य से काव्य सृजन की बात मम्मट के कांता सम्मित उपदेश का ही विस्तार है।

निष्कर्ष[सम्पादन]

उपर्युक्त आचार्यों के मत का अध्ययन करते हुए हम कह सकते हैं काव्य की रचना किंचित उद्देश्य को ध्यान में रखकर की जाती है। काव्य के द्वारा कवि जीवन का परिष्कार करता है। भारतीय साहित्य का प्रधान लक्ष्य रस का उद्रेक होते हुए भी प्रकारांतर से जीवनमूल्यों का उत्थान एवं सामाजिक कल्याण है। भारतीय परंपरा में काव्य या साहित्य 'सत्यं शिवं सुंदरं' का सच्चा वाहक है। सत्य (यथार्थ) और शिव (कल्याणकारी) हुए बिना किसी भी कृति का सुंदर होना असंभव है। कदाचित इसीलिए हिंदी आलोचना ने भी लोकमंगल एवं जनपक्षधरता को साहित्य का वांछित प्रयोजन स्वीकार किया है। भारतीय संस्कृत आचार्यों की दृष्टि सदैव इस बात पर रही कि कवित्व शक्ति एक दुर्लभ व श्रेष्ठ प्रतिभा है। इसका दुरूपयोग करने के लिए न तो कोई मजबूर हो और न तो खुद से करना चाहे। जैसे कालिदास द्वारा रचित कुमारसम्भवम् से उनको कुष्ठ रोग होना बताया जाता है तो इसका यही कारण है कि वे अपनी प्रतिभा को गलत तरीके से काव्य में नियोजित करते हैं। फिर रघुवंश महाकाव्य द्वारा उस रोग से मुक्ति हासिल करते हैं। काव्य रचना स्वयमेव एक उत्तम पुरुषार्थ है। लोकहित और लोकरंजन के लिए अपने को समर्पित करने वाले व्यक्ति को न तो अलग से किसी पुरुषार्थ सिद्धउपाय करने की जरूरत है और न ही उसे स्वयं चिन्तित होना चाहिए। काव्य रचना को हमारे यहाँ साधना का दर्जा दिया गया है। इसलिए इसकी रचना से निर्माता और पाठक दोनों का हित पोषण प्राप्त करता है। अवांछनीय तरीके से इसका दुरूपयोग करने से उत्पन्न अव्यवस्था के प्रति सचेत रहते हुए आचार्यों द्वारा मूलतः यह स्थापित किया गया है कि काव्य रचना का प्रयोजन उदात्त होना चाहिए क्योंकि यह अपने प्रभाव में लोक को व्याप्त करके उसे सुव्यवस्थित या पथभ्रष्ट करने की संभावनाओं से युक्त है। काव्य लोक का पथप्रदर्शक बने और शांति व सुव्यवस्था लाने का माध्यम बने, कवि की दुर्लभ प्रतिभा समाज के लिए उपयोगी हो, इसकी चिन्ता व निर्देश के रूप में काव्य प्रयोजन की अवधारणाओं का विकास हुआ है।

संदर्भ[सम्पादन]