आदिकालीन एवं मध्यकालीन हिंदी कविता/घनआनंद
सवैया
रूपनिधान सुजान सखी जब तें इन नैननि नेकु निहारे।
दीठि थकी अनुराग छकी मति लाज के साज समाज बिसारे।
एक अचंभो भयौ घनआनंद हैं नित ही पल पाट उघारे।
टारैं टरैं नहीं तारे कहूँ सु लगे मनमोहन मोह के तारे॥१॥
व्याख्या
मीत सुजान अनीति करौ जिन हाहा न हूजिए मोहि अमोही।
दीठि कौं और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही।
एक बिसास की टेक गहें लगि आस रहे बसि प्रान बटोही।
हौ घनआनंद जीवनमूल दई कत प्यासन मारत मोही॥२॥
व्याख्या
रावरे रूप की रीति अनूप नयो नयो लागत ज्यों ज्यों निहारिये।
त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहूँ नहिं आनि तिहारियै।
एक ही जीव हुतौ सु तौ वारयौ सुजान! सकोच औ सोच सहारियै।
रोकी रहै न, दहै घनआनंद बावरी रीझ के हाथनि हारियै॥३॥
व्याख्या
अति सूधो सनेह को मारग है जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं।
तहँ साँचे चलैं तजि आपन पौ, झिझकै कपटी जे निसाँक नहीं।
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ इत एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन सी पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥२३॥
व्याख्या
झलकै अति सुन्दर आनन गौर, छके दृग राजत काननि छ्वै।
हँसि बोलनि में छबि-फूलन की वरषा उर-ऊपर जाति है ह्वै।
लट लोल कपोल कलोल करै कल कंठ बनी जलजावलि द्वै।
अँग अंंग तरंग उठै दुति की, परिहै मनौ रूप अबै धर च्वै॥४३॥