आदिकालीन एवं मध्यकालीन हिंदी कविता/रैदास
रैदास के पद
[सम्पादन]1
प्रभु जी! तुम चंदन हम पानी, जा की अंग-अंग बास समानी।
प्रभु जी! तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवन चंद चकोरा।
प्रभु जी! तुम दीपक, हम बाती, जाकी जोति बरै दिन-राती।
प्रभु जी! तुम मोती, हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।
प्रभु जी! तुम स्वामी, हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा ।
2
नरहरि! चंचल मति मोरी, कैसे भगति करौं मैं तोरी।
तू मोहि देखै, हौं तोहिं देखूं, प्रीती परस्पर होई।
तू मोहि देखै हौं तोहि न देखूं, इहि मति सब बुधि खोई।।
सब घटि अंतरि रमसि निरंतरिहौं, देखत हूं नहीं जाना।
गुन सब तोर, मोर सब औगुन, क्रित उपकार न माना।।
मैं तैं तोरि मोरी असमंझसि सों, कैसे करि निस्तारा।
कहै 'रैदास' कृस्न करूनामैं, जै जै जगत अधारा।।
3
अविगत नाथ निरंजन देवा, मैं का जांनू तुम्हारी सेवा।।
बांधूं न बंधन छांऊ न छाया, तुमहि सेऊं निरंजन राया।
चरन पतारि सीस असमाना, सो ठाकुर कैसे संपुट समाना।
सिव सनकादिक अंत न पाया, खोजत ब्रह्मा जनम गंवाया।
तोडूं न पाती, पूजौं न देवा, सहज समाधि करौं हरि सेवा।
नख प्रसेद जाके सुरसुरि धारा, रोमावली अठारह भारा
चारि वेद जिहि सुमिरत सासा, भगति हेतु गावै रैदासा।
4
राम बिन संसै गांठि न छूटै ।
काम क्रोध मोह मद माया, इन पंचन मिलि लूटै।
हम बड़ कवि कुलीन हम पंडित, हम जोगी संन्यासी।
ग्यांनी गुनीं सूर हम दाता, यहु मति कदे न नासी।।
पढ़ें गुनें कछू समझि न परई, जौ लौं अनभै भाव न दरसै।
लोहा हर न होइ घूं कैसे,जो पारस नहीं परसै।।
कहै रैदास और असमझसि, भूमि परै भ्रम भोरे ।
एक अधार नाम नरहरि कौ, जीवनि प्रांन धन मोरै।
5
रे चित चेत-अचेत काहें, बाल्मीकहिं देखि ये।
जाति से कोउ पद नहीं, हरि पहुंचा राम भगति बिसेख रे।।
षटक्रम सहित जे विप्र होते, हरि भगति चित द्रढ़ नाभि रे।
हरि की कथा सुहाय नांही, सुपच तुलै तारि रे।।
मित्र सत्रु अजात सब ते, अंतर लावै हेत रे।
लोग बाकी कहां जाने, तीनि लोक पेवत रे।।
अजामिल गज गनिका तारी, काटी कुंजर की पासि रे।
ऐसे दुरमति मुकति किये, तो क्यूं न तिरै रैदास रे।